सोमवार, 2 मार्च 2009

डा. धर्मवीर भारती का पत्र, पुष्पा भारती के नाम


रविवार, 26 जुलाई 59 रात 9 बजे। आज से तीन दिन पहले बुधवार की रात 8 बजा होगा। सोमवार-मंगल को कविताएं वगैरह छांटी थीं, सोचा था बुधवार अपनी संगिनी का है अत: उस दिन लिखना शुरू करूंगा। लेकिन उस दिन शाम तक पत्र न आने से मन कुछ उचट गया था। गया कालका मेल पर पत्र छोडा और लौटा..। लौटते समय विपिन साथ थे। सामने सडक के सुदूर छोर पर चांद निकल रहा था। पीला, थोडा कटा हुआ और बादल पीछे के तीतरपंखी थे और चांदनी कहीं-कहीं धुंआ-धुंआ-सी बादलों के बीच झांक रही थी और अच्छा लग रहा था साइकिल चलाना। हम लोग घर न जाकर कंपनी बाग में एक पेड के नीचे सीमेंट की बेंच पर बैठ गए। और दुनिया भर की बातें उससे हो रही थीं। परिमल की, लक्ष्मीकांत की, इसकी-उसकी.. लेकिन उधर मेरी निगाह उठी और मैंने जो देखा उसे शायद कभी नहीं भूल पाऊंगा। चांद बादलों में आधा निकला, ऊंचे-घने छतनार पेडों के ऊपर और विक्टोरिया के स्मारक का संगमरमर अंधेरे में सांवला और ऐसा लग रहा था जैसे दफ्ती की एक मीनार-सी काटकर खडी कर दी गयी हो, और जिन रंग-बिरंगे कचनारों के नीचे हमने होड बद कर कलियां बीनी थीं, वे अंधेरे में चुप खडे थे और सारा दृश्य किसी जादू के लोक का लग रहा था और रहस्यमय लग रहा था चांद। उसी क्षण जैसे बिजली की तरह यह बात मन में कौंध गई..। पता नहीं वह बात, वह अनुभूति किन शब्दों में व्यक्त करूं! उफ कितने आयाम हैं तुम्हारे प्यार के भारती-वधू! उस दिन जैसे किसी अनदेखे बन्द दरवाजे की भांति वह क्षण खुल गया और मैंने देखा तुम्हारे प्यार का सर्वथा नया आयाम.. कैसे बताऊं। उस समय मुझे सचमुच लगा जैसे ये चांद जहां जगमगा रहा है, वहां इन कटे-कटे बादलों के बीच से सीढियां जाती हैं- कहां जाती हैं, ये नहीं मालूम- पर इनके बीच से सीढियां जाती हैं- क्या दीख रही हैं वे सीढियां? स्पष्ट चांदनी में चमक रही हैं। कहां ले जाती हैं ये सीढियां? पता नहीं कहां? पर जहां ले जाती हैं वहां सब कुछ स्वच्छ रुपहला है पर सब अपार्थिव है धूमतरल है। वहां धुएं में से ही एक दुग्ध धवल सेज सजी है और दीघा की एक मसहरी पर चारों ओर चार रजनीगंधा की मालाएं लटकी थीं वैसे श्वेत मालाएं। [पर रजनीगंधा की नहीं, जाने किस फूल की] चारों ओर छायी हैं लतरों की तरह- और तुम हो जूडा बनाये और जूडे में लापरवाही से सफेद बेले की माला लपेटे- और सुगन्ध-सुगन्ध-सुगन्ध.. और फिर और भी- बादलों की परतों के पार सडकें हैं, राजमार्ग हैं, भवन हैं, मीनारें हैं, चन्दन-द्वार हैं और राज मेरे वह सब तुम हो! तुम हो वे राजमार्ग जिन पर मैं उस चांद-लोक में चलता हूं। तुम हो वह भवन जिसमें मैं रहता हूं। तुम हो वह सेज जिस पर मैं सोता हूं। तुम हो वह द्वार जिसे मैं खोलता हूं, तुम हो वह जादू जिसमें मैं डूबता हूं.. मैं विपिन से बातें कर रहा था, पर मैं उसके बगल में नहीं था। मुझे लग रहा था यह जो इस समय कम्पनी बाग की एक बेंच पर जो बैठा हुआ है वह मैं नहीं हूं- वह मात्र एक आदत है। वह मात्र एक लाचारी है- मैं वहां हूं उन बादलों के पारवाली सडकों पर तुम्हें चलता हुआ, उन चांद डूबे भवनों में तुम्हें रहता हुआ, उन बेला परती सेजों पर तुम्हें सोता हुआ, उन चंदन कपाटों में तुम्हें आहिस्ते से खोलता हुआ- सुगन्ध, सुगन्ध, निजी नशीली सुगन्ध। यह तो हुआ बुध को- बृहस्पति, शुक्र को खूब काम में लगा रहा। शनिवार को- यानी कल फिर गया तुम्हें कालका पर खत छोडने। शाम को 7 बजे थे। सारा आसमान साफ था.. पूरब की ओर एक विराट बादल- बाबा रे! कम-से-कम 6-7 मील बडा तो होगा- पता नहीं कहां से आकर जैसे नगर पर टिक गया था। और रंग उसका? धुनकी हुई रुई-सा, हंस के पंखों-सा, बर्फ-सा श्वेत- और एक परती नहीं था। लगता था जैसे सैकडों पर्त-दर-पर्त उस बादल में हों। मैं स्टेशन के अंदर जाने के पहले एकटक खडा होकर देखने लगा- ऐसे बादल पहले कभी इस शहर पर आते ही नहीं थे। अब कौन भेजता है इन्हें? और तब एक अजीब चीज देखी उसमें। पर्द-दर-पर्त के बीच एक स्थान पर थोडा-सा हिस्सा, जरा-सा गहराव लिये था। वहां पर छाया का ऐसा अजीब खेल था कि लग रहा था जैसे उतना-सा बादल वहां खुल गया है और पता नहीं ऊंचे-ऊंचे विराट पहाडों की कोई घाटी, गहरी घाटी दीख रही हो और मैं खडा-खडा देख रहा था कि इस घाटी में पता नहीं किस ढलान पर किसी देवदारु के नीचे लेटी हुई तुम अवसादी मुद्रा में मेरा इंतजार कर रही हो- और दीघा के झाऊओं की छाया की भांति तुम अपने स्लैक और शर्ट में हो और गुलाब मुझे बुला रहा है- ओह! उस समय अगर मैं बीच लाइन के खडा होता और ट्रेन भी आ जाती तो मुझे पता नहीं लगता- और आधे घंटे प्रतीक्षा की। ट्रेन आयी, खत छोडा। लौटने लगे तो पुल से देखा बादल शाम को गहरे जामुनी रंग के हो गये हैं और सारे क्षितिज पर फैल गये हैं और उनमें मीनारें, किलें, बारजे, बुर्जियां बन गये हैं और उन सबके पीछे कहीं सिन्दूर बिखरा है पर बहुत पोशीदा- छिपा छिपा- क्या यह सब अव्यक्त रूप में तुम आजकल भेज रही हो या इन विचित्र से अनुभवों से मन में आ रहा है कि सचमुच इन बादलों के पार कोई वास्तविक दुनिया बसी है और इस भौतिक दुनिया और उसके बीच खिडकियां और दरवाजे हैं जो शाम को सूर्यास्त के समय या रात को चन्द्रोदय के समय बादलों में झलकने लगते हैं और उस समय एक कदम हम अगर बढा दें तो उन दरवाजों के पार पहुंच जाएं- और जानती हो क्या लगता है? जैसे बादल ऊपर उडते हैं, नीचे उनकी छाया समानान्तर दौडती चलती हैं- वैसे ही मैं प्रतिक्षण जन्म-जन्मान्तर से मात्र वहीं जीता आया हूं, तुम्हें चलता हुआ, तुम्हें रहता हुआ, तुम्हें सोता हुआ, तुम्हें खोलता-मूंदता हुआ, तुम्हें जीता हुआ- और यह नीचे की जिंदगी छाया है मात्र छाया- नीचे की छाया उलझती है कांटों से, तैरती है पोखर पर, उडती है छतों-आंगनों पर, उलझती है तारों में, टूटती है सीढियों पर, भटकती है चरागाहों पर- लेकिन ऊपर बादल हंस श्वेत बादल मात्र नीले गहरे अथाह मानसरोवर में तैरता रहता है- सदा तृप्त, सदा अतृप्त, सदा पहुंचा हुआ, सदा चलता हुआ। राज! यह कैसा अजब-सा आयाम अपने प्यार को आजकल भेज रही हो। तो तुम्हें विश्वास नहीं होगा! जानती हो क्या हुआ। ऊपर का आधा वाक्य पूरा लिखा भी नहीं था मात्र दिमाग में था कि बेहद गहरी नींद आयी- उसके पहले एक जम्हाई नहीं- जरा आलस नहीं, बस शायद 10 बजे होंगे रात के.. कि एकदम जैसे किसी ने मंत्र पढकर दो सेकेंड में सुला दिया हो। नींद खुली घंटे भर बाद जब हिन्नी ने आकर जगाया- प्यार! आज 26 तारीख है- क्या तुमने थककर सोने के पहले मुझे समूचा बुलाया- समूचा डुबो लिया- और अब जग गया हूं तो फिर ज्यों-का-त्यों। कैसी जादू-निद्रा थी यह- साधारण नींद तो नहीं थी। सच बताना, क्या तुमने मुझे बुला लिया था? और देखो ठीक आधो-आध चांद कैसा अजीब निकल आया है। 12 बज रहे होंगे अब। तुम्हें याद है जायसी वाला शब्द रंगधारी- जिसे गुलाबों पर अंकित करने का प्रयास इस बार राजन ने किया था। वैसी ही दो नीली धारियां डालती हुई बादल रेखाएं बीचोबीच उसके आरपार नीचे की नोक एक अथाह गहरे काले बादल में 5 प्रतिशत डूबी हुई, और दिन भर पानी बरसकर खुल गया है।
काफी ठंडक है आज- और और.. अब आओ, उठो और ऐसे ही राजन की गोद में कोहनी टेककर, उनके कंधे पर माथा टेककर बैठो- तुमसे कुछ मन की बातें करें : देखो मेरे प्यार, उस दिन बुधवार को जब विपिन से पार्क की ठंडी बेंच पर बैठा बातें कर रहा था तो अजीब-सी बात मन में आयी। वह यह कि मेरे अधिकांश मित्रों ने मन के स्तर पर जैसे करना छोड दिया है। जिंदगी की चंद ऊपरी सतहों पर काफी तीखेपन से महसूस करने के बाज अब जो हमारे अस्तित्व और अनुभूति का विराट रहस्य है उसमें धसना छोड दिया है। यही नहीं वरन यह भी कि वे उस ऊपर की सतह को ही है मान बैठे हैं और जैसे मिट्टी की ऊपरी सतहें सूखकर पपडा जाती हैं न, गहरे भीतर कहीं मिट्टी बराबर नम और सोंधी बनी रहती है- वैसे ही उनके हृदयों की अपनी सतहें सूखकर पपडा गयी हैं पर अन्दर अपने ही हृदयों में गहरे उतरकर उसकी आर्द्रता और नमी और सोंधापन को ग्रहण करने और करने का उत्साह और आस्था जैसे अब उनमें धीरे-धीरे समाप्त हो रही है। साहित्य में भी अक्सर अब वे मात्र ऊपरी बातों की चर्चा और विवाद करते हैं अन्दर का रस उनके हाथ से छूट जाता है। तुम जानती हो मेरे मित्र मुझे कितना प्यार करते हैं, मैं अपने मित्रों को कितना प्यार करता हूं- लेकिन लगता है कि कहीं अब मैं जरा अलग-सी पगडंडी पर चल रहा हूं, और वे पुराने दस साल पहले ग्रहण किये गये रास्ते की लीक पीटते चले जा रहे हैं- राजे, मेरी सब कुछ, मेरी एक मात्र अंतरंग मित्र, मेरी कला, मेरी उपलब्धि, मेरे जीवन का नशा, मेरी दृष्टि की गहराई- मैं नहीं जानता तुम्हारे टी.एस. इलियट ने क्या कहा है- कौन व्यक्ति है जो करता है। कौन व्यक्ति है जो लिखता है-सिर्फ इतना जानता हूं कि मैं, मेरी कला, मेरा मन, मेरी दृष्टि सब कुछ तुम हो- वे हंस से उलझने वाली उंगलियां हैं जो लिखती हैं, मैं नहीं-टी.एस. इलियट ने अगर ऐसा प्यार पाया होता तो वह भी यही कहता। -[पुष्पा भारती]

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