शनिवार, 28 फ़रवरी 2009

टेपचू

उदय प्रकाश
यहाँ जो कुछ लिखा हुआ है, वह कहानी नहीं है. कभी-कभी सच्चाई कहानी से भी ज्यादा हैरत अंगेज होती है. टेपचू के बारे में सब कुछ जान लेने के बाद आपको भी ऐसा ही लगेगा. टेपचू को मैं बहुत करीब से जानता हूं. हमारा गांव मडर सोन नदी के किनारे एक-दो फर्लांग के फासले पर बसा हुआ है. दूरी शायद कुछ और कम हो, क्योंकि गांव की औरतें सुबह खेतों में जाने से पहले और शाम को वहां से लौटने के बाद सोन नदी से ही घरेलू काम-काज के लिए पानी भरती है. ये औरतें कुछ ऐसी औरतें हैं, जिन्हें मैंने थकते हुए कभी नहीं देखा है. वे लगातार काम करती जाती है.
गांव के लोग सोन नदी में ही डुबकियां लगा-लगाकर नहाते हैं. डुबकियां लगा पाने लायक पानी गहरा करने के लिए नदी के भीतर कुइयां खोदनी पडती है. नदी की बहती हुई धार के नीचे बालू को अंजुलियों से सरका दिया जाए तो कुइयां बन जाती है. गर्मी के दिनों में सोन नदी में पानी इतना कम होता है कि बिना कुइयां बनाए आदमी का धड ही नहीं भींगता. यही सोन नदी बिहार पहुंचते-पहुंचते कितनी बडी हो गई है, इसका अनुमान आप हमारे गांव के घाट पर खडे होकर नहीं लगा सकते.
हमारे गांव में दस-ग्यारह साल पहले अब्बी नाम का एक मुसलमान रहता था. गांव के बाहर जहां चमारों की बस्ती है, उसी से कुछ हटकर तीन-चार घर मुसलमानों के थे. मुसलमान, मुर्गियां, बकरियां पालते थे. लोग उन्हें चिकवा या कटुआ कहते थे. वे बकरे-बकरियों के गोश्त का धंधा भी करते थे. थोडी बहुत जमीन भी उनके पास होती थी. अब्बी आवारा और फक्कड क़िस्म का आदमी था. उसने दो-दो औरतों के साथ शादी कर रखी थी. बाद में एक औरत जो ज्यादा खूबसूरत थी, कस्बे के दर्जी के घर जाकर बैठ गई. अब्बी ने गम नहीं किया. पंचायत ने दर्जी क़ो जितनी रकम भरने को कहा, उसने भर दी. अब्बी ने उन रूपयों से कुछ दिनों ऐश किया और फिर एक हारमोनियम खरीद लाया. अब्बी जब भी हाट जाता, उसी दर्जी क़े घर रुकता. खाता-पीता, जश्न मनाता, अपनी पुरानी बीवी को फुसलाकर कुछ रूपए ऐंठता और फिर खरीदारी करके घर लौट आता. कहते हैं, अब्बी खूबसूरत था. उसके चेहरे पर हल्की-सी लुनाई थी. दुबला-पतला था. बचपन में बीमार रहने और बाद में खाना-पीना नियमित न रहने के कारण उसका रंग हल्का-सा हल्दिया हो गया था. वह गोरा दिखता था. लगता था, जैसे उसके शरीर ने कभी धूप न खाई हो. अंधेरे में, धूप और हवा से दूर उगने वाले गेहूं के पीले पौधे की तरह उसका रंग था. फिर भी, उसमें जाने क्या गुण था कि लडक़ियां उस पर फिदा हो जाती थीं. शायद इसका एक कारण यह रहा हो कि दूर दराज शहर में चलने वाले फैशन सबसे पहले गांव में उसी के द्वारा पहुंचते थे. जेबी कंघी, धूप वाला चश्मा, जो बाहर से आईने की तरह चमकता था, लेकिन भीतर से आर-पार दिखाई देता था, तौलिए जैसे कपडे क़ी नंबरदार पीली बनियान, पंजाबियों का अष्टधातु का कडा, रबर का हंटर वगैरह ऐसी चीजें थी, जो अब्बी शहर से गांव लाया था.
जब से अब्बी ने हारमोनियम खरीदा था, तब से वह दिन भर चीपों-चीपों करता रहता था. उसकी जेब में एक-एक आने में बिकने वाली फिल्मी गानों की किताबें होतीं. उसने शहर में कव्वालों को देखा था और उसकी दिली ख्वाहिश थी कि वह कव्वाल बन जाए, लेकिन जी-तोड क़ोशिश करने के बाद भी ़ ़''हमें तो लूट लिया मिल के हुस्नवालों ने'' के अलावा और दूसरी कोई कव्वाली उसे याद ही नहीं हुई.
बाद में अब्बी ने अपनी दाढी-मूंछ बिल्कुल सफाचट कर दी और बाल बढा लिए. चेहरे पर मुरदाशंख पोतने लगा. गांव के धोबी का लडक़ा जियावन उसके साथ-साथ डोलने लगा और दोनों गांव-गांव जाकर गाना-बजाना करने लगे. अब्बी इस काम को आर्ट कहता था, लेकिन गांव के लोग कहते थे, ''ससुर, भडैती कर रहा है.'' अब्बी इतनी कमाई कर लेता था कि उसकी बीवी खा-पहन सके.
टेपचू इसी अब्बी का लडक़ा था.टेपचू जब दो साल का था, तभी अब्बी की अचानक मौत हो गई.
अब्बी की मृत्यु भी बडी अजीबो-गरीब दुर्घटना में हुई. आषाढ क़े दिन थे. सोन उमड रही थी. सफेद फेन और लकडी क़े सडे हुए लठ्ठे-पटरे धार में उतरा रहे थे. पानी मटैला हो गया था, चाय के रंग जैसा, और उसमें कचरा, काई, घास-फूस बह रहे थे. यह बाढ क़ी पूर्व सूचना थी. घंटे-दो घंटे के भीतर सोन नदी में पानी बढ ज़ाने वाला था. अब्बी और जियावन को जल्दी थी, इसलिए वे बाढ से पहले नदी पार कर लेना चाहते थे. जब तक वे पार जाने का फैसला करें और पानी में पांव दे तब तक सोन में कमर तक पानी हो गया था. जहां कहीं गांव के लोगों ने कुइयां खोदी थीं, वहां छाती तक पानी पहुंच गया था. कहते हैं कि जियावन और अब्बी बहुत इत्मीनान से नदी पार कर रहे थे. नदी के दूसरे तट पर गांव की औरतें घडा लिए खडी थीं. अब्बी उन्हें देखकर मौज में आ गया. जियावन ने परदेसिया की लंबी तान खींची. अब्बी भी सुर मिलाने लगा. गीत कुछ गुदगुदीवाला था. औरतें खुश थीं और खिलखिला रही थीं. अब्बी कुछ और मस्ती में आ गया. जियावन के गले में अंगोछे से बंधा हारमोनियम झूल रहा था. अब्बी ने हारमोनियम उससे लेकर अपने गले में लटका लिया और रसदार साल्हो गाने लगा. दूसरे किनारे पर खडी हुई औरतें खिलखिला ही रही थीं कि उनके गले से चीख निकल गई. जियावन अवाक होकर खडा ही रह गया. अब्बी का पैर शायद धोखे से किसी कुइयां या गङ्ढे में पड ग़या था. वह बीच धार में गिर पडा. गले में लटके हुए हारमोनियम ने उसको हाथ पांव मारने तक का मौका न दिया. हुआ यह था कि अब्बी किसी फिल्म में देखे हुए वैजयंती माला के नृत्य की नकल उतारने में लगा हुआ था और इसी नृत्य के दौरान उसका पैर किसी कुइयां में पड ग़या. कुछ लोग कहते हैं कि नदी में चोर बालू भी होता है. ऊपर-ऊपर से देखने पर रेत की सतह बराबर लगती है, लेकिन उसके नीचे अतल गहराई होती है ़ ़पैर रखते ही आदमी उसमें समा सकता है.
अब्बी की लाश और हारमोनियम, दोनों को ढूंढने की बहुत कोशिश की गई. मलंगा जैसा मशहूर मल्लाह गोते लगाता रहा, लेकिन सब बेकार. कुछ पता ही नहीं चला.
अब्बी की औरत फिरोजा जवान थी. अब्बी के मर जाने के बाद फिरोज़ा के सिर पर मुसीबतों के पहाड टूट पडे. वह घर-घर जाकर दाल-चावल फटकने लगी. खेतों में मजदूरी शुरू की. बगीचों की तकवानी का काम करना शुरू किया, तब कहीं जाकर दो रोटी मिल पाती. दिन भर वह ढेंकी कूटती, सोन नदी से मटके भर-भरकर पानी ढोती, घर का सारा काम काज करना पडता, रात खेतों की तकवानी में निकल जाती. घर में एक बकरी थी, जिसकी देखभाल भी उसे ही करनी पडती. इतने सारे कामों के दौरान टेपचू उसके पेट पर, एक पुरानी साडी में बंधा हुआ चमगादड क़ी तरह झूलता रहता.
फिरोजा को अकेला जानकर गांव के कई खाते-पीते घरानों के छोकरों ने उसे पकडने की कोशिश की, लेकिन टेपचू हर वक्त अपनी मां के पास कवच की तरह होता. दूसरी बात, वह इतना घिनौना था कि फिरोजा की जवानी पर गोबर की तरह लिथडा हुआ लगता था. पतले-पतले सूखे हुए झुर्रीदार हाथ-पैर, कद्दू की तरह फूला हुआ पेट, फोडाें से भरा हुआ शरीर. लोग टेपचू के मरने का इंतजार करते रहे. एक साल गुजरते-गुजरते हाड-तोड मेहनत ने फिरोजा की देह को झिंझोडक़र रख दिया. वह बुढा गई. उसके बाल उलझे हुए सूखे और गंदे रहते. कपडाें से बदबू आती. शरीर मैल पसीने और गर्द से चीकट रहा करता. वह लगातार काम करती रही. लोगों को उससे घिन होने लगी.
टेपचू जब सात-आठ साल का हुआ, गांव के लोगों की दिलचस्पी उसमें पैदा हुई.हमारे गांव के बाहर, दूर तक फैले धान के खेतों के पार आम का एक घना बगीचा था. कहा जाता है कि गांव के संभ्रांत किसान घरानों, ठाकुरों-ब्राह्मणों की कुलीन कन्याएं उसी बगीचे के अंधेरे कोनों में अपने अपने यारों से मिलतीं. हर तीसरे-चौथे साल उस बगीचे के किसी कोने में अलस्सुबह कोई नवजात शिशु रोता हुआ लावारिस मिल जाता था. इस तरह के ज्यादातर बच्चे स्वस्थ, सुंदर और गोरे होते थे. निश्चित ही गांव के आदिवासी कोल-गोंडों के बच्चे वे नहीं कहे जा सकते थे. हर बार पुलिस आती. दरोगा ठाकुर साहब के घर में बैठा रहता. पूरी पुलिस पलटन का खाना वहां पकता. मुर्गे गांव से पकडवा लिए जाते. शराब आती. शाम को पान चबाते, मुस्कराते और गांव की लडक़ियों से चुहलबाजी करते पुलिस वाले लौट जाया करते. मामला हमेशा रफा-दफा हो जाता था.
इस बगीचे का पुराना नाम मुखियाजी का बगीचा था. वर्षों पहले चौधरी बालकिशन सिंह ने यह बगीचा लगाया था. मंशा यह थी कि खाली पडी हुई सरकारी जमीन को धीरे-धीरे अपने कब्ज़े में कर लिया जाए. अब तो वहां आम के दो-ढाई सौ पेड थे, लेकिन इस बगीचे का नाम अब बदल गया था. इसे लोग भुतहा बगीचा कहते थे, क्योंकि मुखिया बालकिशन सिंह का भूत उसमें बसने लगा था. रात-बिरात उधर जाने वाले लोगों की घिग्घी बंध जाती थी. बालकिशन सिंह के बडे बेटे चौधरी किशनपाल सिंह एक बार उधर से जा रहे थे तो उनको किसी स्त्री के रोने की आवाज सुनाई पडी. ज़ाकर देखा ़ ़झाडियों, झुरमुटों को तलाशा तो कुछ नहीं. उनके सिर तक के बाल खडे हो गए. धोती का फेंटा खुल गया और वे हनुमान-हनुमान करते भाग खडे हुए.
तब से वहां अक्सर रात में किसी स्त्री की कराहने या रोने की करुण आवाज सुनी जाने लगी. दिन में जानवरों की हड्डियां, जबडे या चूडियों के टुकडे वहां बिखरे दिखाई देते. गांव के कुछ लफंगों का कहना था कि उस बगीचे में भूत-ऊत कुछ नहीं रहता. सब मुखिया के घराने द्वारा फैलाई गई अफवाह है. साले ने उस बगीचे को ऐशगाह बना रखा है.
एक बार मैं पडाेस के गांव में शादी के न्यौते में गया था. लौटते हुए रात हो गई. बारह बजे होंगे. संग में राधे, संभारू और बालदेव थे. रास्ता बगीचे के बीच से गुजरता था. हम लोगों ने हाथ में डंडा ले रखा था. अचानक एक तरफ सूखे पत्तों की चरमराहट सुनाई पडी. लगा, जैसे कोई जंगली सूअर बेफिक्री से पत्तियों को रौंदता हुआ हमारी ओर ही चला आ रहा है. हम लोग रूककर आहट लेने लगे. गर्मी की रात थी. जेठ का महीना. अचानक आवाज ज़ैसे ठिठक गई. सन्नाटा खिंच गया. हम टोह लेने लगे. भीतर से डर भी लग रहा था. बालदेव आगे बढा, कौन है, बे, छोह-छोह. उसने जमीन पर लाठी पटकी हालांकि उसकी नसें ढीली पड रही थीं. कहीं मुखिया का जिन्न हुआ तो? मैंने किसी तरह हिम्मत जुटाई, ''अबे, होह, होह.'' बालदेव को आगे बढा देखा संभारू भी तिडी हो गया. पगलेटों की तरह दाएं-बाएं ऊपर-नीचे लाठियां भांजता वह उसी ओर लपका.
तभी एक बारीक और तटस्थ सी आवाज सुनाई पडी, ''हम हन भइया, हम.''''तू कौन है बे?''बालदेव कडक़ा.अंधेरे से बाहर निकलकर टेपचू आया, ''काका, हम हन टेपचू.'' वह बगीचे के बनते-मिटते घने अंधेरे में धुंधला सा खडा था. हाथ में थैला था. मुझे ताज्जुब हुआ. ''इतनी रात को इधर क्या कर रहा है कटुए?''
थोडी देर टेपचू चुप रहा. फिर डरता हुआ बोला, ''अम्मा को लू लग गई थी. दोपहर मुखिया के खेत की तकवानी में गई थी, घाम खा गई. उसने कहा कि कच्ची अमिया का पना मिल जाए तो जुडा जाएगी. बडा तेज जर था.''''भूत-डाइन का डर नहीं लगा तुझे मुए? किसी दिन साले की लाश मिलेगी किसी झाड-झंखाड में.'' राधे ने कहा. टेपचू हमारे साथ ही गांव लौटा. रास्ते भर चुपचाप चलता रहा. जब उसके घर जाने वाली गली का मोड अाया तो बोला, ''काका, मुखिया से मत खोलना यह बात नहीं तो मार-मार कर भरकस बना देगा हमें.''
टेपचू की उम्र उस समय मुश्किल से सात-आठ साल की रही होगी.दूसरी बार यों हुआ कि टेपचू अपनी अम्मा फिरोजा से लडक़र घर से भाग गया. फिरोजा ने उसे जलती हुई चूल्हे की लकडी से पीटा था. सारी दोपहर, चिनचिनाती धूप में टेपचू जंगल में ढोर-ढंगरों के साथ फिरता रहा. फिर किसी पेड क़े नीचे छांह में लेट गया. थका हुआ था. आंख लग गई. नींद खुली तो आंतों में खालीपन था. पेट में हल्की-सी आंच थी भूख की. बहुत देर तक वह यों ही पडा रहा, टुकुर-टुकुर आसमान ताकता. फिर भूख की आंच में जब कान के लवे तक गर्म होने लगे तो सूस्त-सा उठकर सोचने लगा कि अब क्या जुगाड क़िया जाए. उसे याद आया कि सरई के पेडाें के पार जंगल के बीच एक मैदान है. वहीं पर पुरनिहा तालाब है.
वह तालाब पहुंचा. इस तालाब में, दिन में गांव की भैंसें और रात में बनैले सूअर लोटा करते थे. पानी स्याह-हरा सा दिखाई दे रहा था. पूरी सतह पर कमल और कुई के फूल और पुरईन फैले हुए थे. काई की मोटी पर्त बीच में थी. टेपचू तालाब में घुस गया. वह कमल गट्टे और पुरइन की कांद निकालना चाहता था. तैरना वह जानता था.
बीच तालाब में पहुंचकर वह कमलगट्टे बटोरने लगा एक हाथ में ढेर सारे कमलगट्टे उसने खसोट रखे थे. लौटने के लिए मुडा, तो तैरने में दिक्कत होने लगी. जिस रास्ते से पानी काटता हुआ वह लौटना चाहता था, वहां पुरइन की घनी नालें आपस में उलझी हुई थीं. उसका पैर नालों में उलझ गया और तालाब के बीचों-बीच वह ''बक-बक'' करने लगा.
परमेसुरा जब भैंस को पानी पिलाने तालाब आया तो उसने ''गुडप ़ ़ग़ुडप'' की आवाज सुनी. उसे लगा, कोई बहुत बडी सौर मछली तालाब में मस्त होकर ऐंठ रही है. जेठ के महीने में वैसे भी मछलियों में गर्मी चढ ज़ाती है. उसने कपडे उतारे और पानी में हेल गया. जहां पर मछली तडप रही थी वहां उसने गोता लगाकर मछली के गलफडाें को अपने पंजों में दबोच लेना चाहा तो उसके हाथ में टेपचू की गर्दन आई. वह पहले तो डरा, फिर उसे खींचकर बाहर निकाल लाया. टेपचू अब मरा हुआ सा पडा था. पेट गुब्बारे की तरह फूल गया था और नाक-कान से पानी की धार लगी हुई थी. टेपचूं नंगा था और उसकी पेशाब निकल रही थी. परमेसुरा ने उसकी टांगे पकडक़र उसे लटकाकर पेट में ठेहुना मारा तो ''भल-भल'' करके पानी मुंह से निकला.
एक बाल्टी पानी की उल्टी करने के बाद टेपचू मुस्कराया. उठा और बोला ''काका, थोडे-से कमलगट्टे तालाब से खींच दोगे क्या? मैंने इत्ता सारा तोडा था, साला सब छूट गया. बडी भूख लगी है.''
परमेसुरा ने भैंस हांकने वाले डंडे से टेपचू के चूतड में चार-पांच डंडे जमाए और गालियां देता हुआ लौट गया.
गांव के बाहर, कस्बे की ओर जाने वाली सडक़ के किनारे सरकारी नर्सरी थी. वहां पर प्लांटेशन का काम चल रहा था. बिडला के पेपर मिल के लिए बांस, सागौन और यूक्लिप्टस के पेड लगाए गए थे. उसी नर्सरी में, काफी भीतर ताड क़े भी पेड थे. गांव में ताडी पीने वालों की अच्छी-खासी तादाद थी. ज्यादातर आदिवासी मजदूर, जो पी.डब्ल्यू.डी. में सडक़ बनाने तथा राखड गिट्टी बिछाने का काम करते थे, दिन-भर की थकान के बाद रात में ताडी पीकर धुत हो जाते थे. पहले वे लोग सांझ का झुटपुटा होते ही मटका ले जाकर पेड में बांध देते थे. ताड क़ा पेड बिल्कुल सीधा होता है. उस पर चढने की हिम्मत या तो छिपकली कर सकती है या फिर मजदूर. सुबह तक मटके में ताडी ज़मा हो जाती थी. लोग उसे उतार लाते.
ताड पर चढने के लिए लोग बांस की पंक्सियां बनाते थे और उस पर पैर फंसा कर चढते थे. इसमें गिरने का खतरा कम होता. अगर उतनी ऊंचाई से कोई आदमी गिर जाता तो उसकी हड्डियां बिखर सकती थीं.
अब ताड क़े उन पेडाें पर किशनपालसिंह की मिल्कियत हो गई थी. पटवारी ने उस सरकारी नर्सरी के भीतर भी उस जमीन को किशनपालसिंह के पट्टे में निकाल दिया था. अब ताडी निकलवाने का काम वही करते थे. ग्राम पंचायत भवन के बैठकी वाले कमरे में, जहां महात्मा गांधी की तस्वीर टंगी हुई थी, उसी के नीचे शाम को ताडी बांटी जाती. कमरे के भीतर और बाहर ताडीख़ोर मजदूरों की अच्छी-खासी जमात इकठ्ठा हो जाती थी. किशनपालसिंह को भारी आमदनी होती थी.
एक बार टेपचू ने भी ताडी चखनी चाही. उसने देखा था कि जब गांव के लोग ताडी पीते तो उनकी आंखें आह्लाद से भर जातीं. चेहरे से सुख टपकने लगता. मुस्कान कानों तक चौडी हो जाती, मंद-मंद. आनंद और मस्ती में डूबे लोग साल्हो-दादर गाते, ठहाके लगाते और एक-दूसरे की मां-बहन की ऐसी तैसी करते. कोई बुरा नहीं मानता था. लगता जैसे लोग प्यार के अथाह समुंदर में एक साथ तैर रहे हो.
टेपचू को लगा कि ताडी ज़रूर कोई बहुत ऊंची चीज है. सवाल यह था कि ताडी पी कैसे जाए. काका लोगों से मांगने का मतलब था, पिट जाना. पिटने से टेपचू को सख्त नफरत थी. उसने जुगाड ज़माया और एक दिन बिल्कुल तडक़े, जब सुबह ठीक से हो भी नहीं पाई थी, आकाश में इक्का-दुक्का तारे छितरे हुए थे, वह झाडा फिरने के बहाने घर से निकल गया.
ताड क़ी ऊंचाई और उस ऊंचाई पर टंगे हुए पके नींबू के आकार के मटके उसे डरा नहीं रहे थे, बल्कि अदृश्य उंगलियों से इशारा कर उसे आमंत्रित कर रहे थे. ताड क़े हिलते हुए डैने ताडी क़े स्वाद के बारे में सिर हिला-हिलाकर बतला रहे थे. टेपचू को मालूम था कि छपरा जिले का लठ्ठबाज मदना सिंह ताडी क़ी रखवाली के लिए तैनात था. वह जानता था कि मदना सिंह अभी ताडी की खुमारी में कहीं खर्राटें भर रहा होगा. टेपचू के दिमाग में डर की कोई हल्की सी खरोंच तक नहीं थी.
वह गिलहरी की तरह ताड क़े एकसार सीधे तने से लिपट गया और ऊपर सरकने लगा. पैरों में न तो बांस की पक्सियां थी और न कोई रस्सी ही. पंजों के सहारे वह ऊपर सरकता गया. उसने देखा, मदना सिंह दूर एक आम के पेड क़े नीचे अंगोछा बिछाकर सोया हुआ है. टेपचू अब काफी ऊंचाई पर था. आम, महुए बहेडा और सागौन के गबदू से पेड उसे और ठिंगने नजर आ रहे थे. ''अगर मैं गीध की तरह उड सकता तो कित्ता मजा आता.'' टेपचू ने सोचा. उस ने देखा, उसकी कुहनी के पास एक लाल चींटी रेंग रही थी, ''ससुरी'' उसने एक भद्दी गाली बकी और मटके की ओर सरकने लगा.
मदना सिंह जमुहाइयां लेने लगा था और हिल-डुलकर जतला रहा था कि उसकी नींद अब टूटने वाली है. धुंधलका भी अब उतना नहीं रह गया था. सारा काम फुर्ती से निपटाना पडेग़ा. टेपचू ने मटके को हिलाया. ताडी चौथाई मटके तक इकठ्ठी हो गई थी. उसने मटके में हाथ डालकर ताडी क़ी थाह लेनी चाही ़ ़
और बस, यहीं सारी गडबड हो गई.मटके में फनियल करैत सांप घुसा हुआ था. असल नाग. ताडी पीकर वह भी धुत था. टेपचू का हाथ अंदर गया तो वह उसके हाथ में बौडक़र लिपट गया. टेपचू का चेहरा राख की तरह सफेद हो गया. गीध की तरह उडने जैसी हरकत उसने की. ताड क़ा पेड एक तरफ हो गया और उसके समानांतर टेपचू वजनी पत्थर की तरह नींचे को जा रहा था. मटका उसके पीछे था.
जमीन पर टेपचू गिरा तो धप्प की आवाज के साथ एक मरते हुए आदमी की अंतिम कराह भी उसमें शामिल थी. इसके बाद मटका गिरा और उसके हिज्जे-हिज्जे बिखर गए. काला सांप एक ओर पडा हुआ ऐंठ रहा था. उसकी रीढ क़ी हड्डियां टूट गई थीं.
मदना सिंह दौडा. उसने आकर देखा तो उसकी हवा खिसक गई. उसने ताड क़ी फुनगी से मटके समेत टेपचू को गिरते हुए देखा था. बचने की कोई संभावना नहीं थी. उसने एक-दो बार टेपचू को हिलाया-डुलाया. फिर गांव की ओर हादसे की खबर देने दौड ग़या.
धाड मार-मारकर रोती, छाती कूटती फिरोजा लगभग सारे गांव के साथ वहां पहुंची. मदना सिंह उन्हें मौके की ओर ले गया, लेकिन मदना सिंह बक्क रह गया. ऐसा नहीं हो सकता - यही ताड क़ा पेड था, इसी के नीचे टेपचू की लाश थी. उसने ताडी क़े नशे में सपना तो नहीं देखा था? लेकिन फूटा हुआ मटका अब भी वहीं पडा हुआ था. सांप का सिर किसी ने पत्थर के टुकडे से अच्छी तरह थुर दिया था. लेकिन टेपचू का कहीं अता-पता नहीं था. आसपास खोज की गई, लेकिन टेपचू मियां गायब थे.
गांववालों को उसी दिन विश्वास हो गया कि हों न हों टेपचू साला जिन्न है, वह कभी मर नहीं सकता.
फिरोजा की सेहत लगातार बिगड रही थी. गले के दोनों ओर की हडिडयां उभर आई थीं. स्तन सूखकर खाली थैलियों की तरह लटक गए थे. पसलियां गिनी जा सकती थीं. टेपचू को वह बहुत अधिक प्यार करती थी. उसी के कारण उसने दसूरा निकाह नहीं किया था.
टेपचू की हरकतों से फिरोजा को लगने लगा कि वह कहीं बहेतू और आवारा होकर न रह जाए. इसीलिए उसने एक दिन गांव के पंडित भगवानदीन के पैर पकडे. पंडित भगवानदीन के घर में दो भैंसें थीं और खेती पानी के अलावा दूध पानी बेचने का धंधा भी करते थे. उनको चरवाहे की जरूरत थी इसलिए पन्द्रह रूपए महीने और खाना खुराक पर टेपचू रख लिया गया. भगवानदीन असल काइयां थे. खाने के नाम पर रात का बचा-खुचा खाना या मक्के की जली-भूनी रोटियां टेपचू को मिलतीं. करार तो यह था कि सिर्फ भैसों की देखभाल टेपचू को करनी पडेग़ी, लेकिन वास्तव में भैसों के अलावा टेपचू को पंडित के घर से लेकर खेत-खलिहान तक का सारा काम करना पडता था. सुबह चार बजे उसे जगा दिया जाता और रात में सोते-सोते बारह बज जाते. एक महीने में ही टेपचू की हालत देखकर फिरोजा पिघल गई. छाती में भीतर से रूलाई का जोरदार भभका उठा. उसने टेपचू से कहा भी कि बेटा इस पंडित का द्वार छोड दे. कहीं और देख लेंगे. यह तो मुआ कसाई है पूरा, लेकिन टेपचू ने इंकार कर दिया.
टेपचू ने यहां भी जुगाड ज़मा लिया. भैसों को जंगल में ले जाकर वह छुट्टा छोड देता और किसी पेड क़े नीचे रात की नींद पूरी करता. इसके बाद उठता. सोन नदी में भैसों को नहलाता, कुल्ला वगैरह करता. फिर इधर-उधर अच्छी तरह से देख-ताककर डालडा के खाली डिब्बे में एक किलो भैंस का ताजा दूध दुहकर चढा लेता. उसकी सेहत सुधरने लगी.
एक बार पंडिताइन ने उसे किसी बात पर गाली बकी और खाने के लिए सडा हुआ बासी भात दे दिया. उस दिन टेपचू को पंडित के खेत की निराई भी करनी पडी थी और थकान और भूख से वह बेचैन था. भात का कौर मुंह में रखते ही पहले तो खटास का स्वाद मिला, फिर उबकाई आने लगी. उसने सारा खाना भैसों की नांद में डाल दिया और भैसों को हांककर जंगल ले गया.
शाम को जब भैसें दुही जाने लगीं तो छटांक भर भी दूध नहीं निकला. पंडित भगवानदीन को शक पड ग़या और उन्होंने टेपचू की जूतों से पिटाई की. देर तक मुर्गा बनाए रखा, दीवाल पर उकडू बैठाया, थप्पड चलाए और काम से उसे निकाल दिया.
इसके बाद टेपचू पी.डब्ल्यू.डी. में काम करने लगा. राखड मुरम, बजरी बिछाने का काम. सडक़ पर डामर बिछाने का काम. बडे-बडे मर्दों के लायक काम. चिलचिलाती धूप में. फिरोजा मकई के आटे में मसाला - नमक मिलाकर रोटियां सेंक देती. टेपचू काम के बीच में, दोपहर उन्हें खाकर दो लोटा पानी सडक़ लेता.
ताज्जुब था कि इतनी कडी मेहनत के बावजूद टेपचू सिझ-पककर मजबूत होता चला गया. काठी कढने लगी. उसकी कलाई की हड्डियां चौडी होती गईं, पेशियों में मछलियां मचलने लगीं. आंखों में एक अक्खड रौब और गुस्सा झलकने लगा. पंजे लोहे की माफिक कडे होते गए.
एक दिन टेपचू एक भरपूर आदमी बन गया. जवान.पसीने, मेहनत, भूख, अपमान, दुर्घटनाओं और मुसीबतों की विकट धार को चीरकर वह निकल आया था. कभी उसके चेहरे पर पस्त होने, टूटने या हार जाने का गम नहीं उभरा.
उसकी भौहों को देखकर एक चीज हमेशा अपनी मौजूदगी का अहसास कराती-गुस्सा, या शायद घृणा की थरथराती हुई रोशन पर्त.
मैंने इस बीच गांव छोड दिया और बैलाडिला के आयरन ओर मिल में नौकरी करने लगा. इस बीच फिरोजा की मौत हो गई. बालदेव, संभारू और राधे के अलावा गांव के कई और लोग बैलाडिला में मजदूरी करने लगे. पंडित भगवानदीन को हैजा हो गया और वे मर गए. हां, किशनपाल सिंह उसी तरह ताडी उतरवाने का धंधा करते रहे. वे कई सालों से लगातार सरपंच बन रहे थे. कस्बे में उनकी पक्की हवेली खडी हो गई और बाद में वे एम.एल.ए. हो गए.
लंबा अर्सा गुजर गया. टेपचू की खबर मुझे बहुत दिनों तक नहीं मिली लेकिन यह निश्चित था कि जिन हालात में टेपचू काम कर रहा था, अपना खून निचोड रहा था, अपनी नसों की ताकत चट्टानों में तोड रहा था - वे हालात किसी के लिए भी जानलेवा हो सकते थे.
टेपचू से मेरी मुलाकात पर तब हुई, जब वह बैलाडिला आया. पता लगा कि किशनपाल सिंह ने गुंडों से उसे बुरी तरह पिटवाया था. गुंडों ने उसे मरा हुआ जानकर सोन नदी में फेंक दिया था, लेकिन वह सही सलामत बच गया और उसी रात किशनपाल सिंह की पुआल में आग लगाकर बैलाडिला आ गया. मैंने उसकी सिफारिश की और वह मजदूरी में भर्ती कर लिया गया.
वह सन अठहत्तर का साल था.हमारा कारखाना जापान की मदद से चल रहा था. हम जितना कच्चा लोहा तैयार करते, उसका बहुत बडा हिस्सा जापान भेज दिया जाता. मजदूरों को दिन-रात खदान में काम करना पडता.
टेपचू इस बीच अपने साथियों से पूरी तरह घुल-मिल गया था. लोग उसे प्यार करते. मैंने वैसा बेधडक़, निडर और मुंहफट आदमी और नहीं देखा. एक दिन उसने कहा था, ''काका, मैंने अकेले लडाइयां लडी है. हर बार मैं पिटा हूं. हर बार हारा हूं. अब अकेले नहीं, सबके साथ मिलकर देखूंगा कि सालों में कितना जोर है.''
इन्हीं दिनों एक घटना हुई. जापान ने हमारे कारखाने से लोहा खरीदना बंद कर दिया, जिसकी वजह से सरकारी आदेश मिला कि अब हमें कच्चे लोहे का उत्पादन कम करना चाहिए. मजदूरों की बडी तादाद में छंटनी करने का सरकारी फरमान जारी हुआ. मजदूरों की तरफ से मांग की गई कि पहले उनकी नौकरी का कोई दूसरा बंदोबस्त कर दिया जाए तभी उनकी छंटनी की जाए. इस मांग पर बिना कोई ध्यान दिए मैनेजमेंट ने छंटनी पर फौरन अमल शुरू कर दिया. मजदूर यूनियन ने विरोध में हडताल का नारा दिया. सारे मजदूर अपनी झुग्गियों में बैठ गए. कोई काम पर नहीं गया.
चारों तरफ पुलिस तैनात कर दी गई. कुछ गश्ती टुकडियां भी रखी गई, जो घूम-घूमकर स्थिति को कुत्तों की तरह सूंघने का काम करती थीं. टेपचू से मेरी भेंट उन्हीं दिनों शेरे पंजाब होटल के सामने पडी लकडी क़ी बेंच पर बैठे हुए हुई. वह बीडी पी रहा था. काले रंग की निकर पर उसने खादी का एक कुर्ता पहन रखा था.
मुझे देखकर वह मुस्कराया, ''सलाम काका, लाल सलाम.'' फिर अपने कत्थे-चूने से रंगे मैले दांत निकालकर हंस पडा, ''मनेजमेंट की गांड में हमने मोटा डंडा घुसेड रखा है. साले बिलबिला रहे हैं, लेकिन निकाले निकलता नहीं काका, दस हजार मजदूरों को भुक्खड बनाकर ढोरों की माफिक हांक देना कोई हंसी-ठठ्ठा नहीं है. छंटनी ऊपर की तरफ से होनी चाहिए. जो पचास मजदूरों के बराबर पगार लेता हो, निकालो सबसे पहले उसे, छांटो अजमानी साहब को पहले.''
टेपचू बहुत बदल गया था. मैंने गौर से देखा उसकी हंसी के पीछे घृणा, वितृष्णा और गुस्से का विशाल समुंदर पछाडे मार रहा था. उसकी छाती उघडी हुई थी. कुर्ते के बटन टूटे हुए थे. कारखाने के विशालकाय फाटक की तरह खुले हुए कुर्ते के गले के भीतर उसकी छाती के बाल हिल रहे थे, असंख्य मजदूरों की तरह, कारखाने के मेन गेट पर बैठे हुए. टेपचू ने अपने कंधे पर लटकते हुए झोले से पर्चे निकाले और मुझे थमाकर तीर की तरह चला गया.
कहते हैं, तीसरी रात यूनियन ऑफिस पर पुलिस ने छापा मारा. टेपचू वहीं था. साथ में और भी कई मजदूर थे. यूनियन ऑफिस शहर से बिल्कुल बाहर दूसरी छोर पर था. आस-पास कोई आबादी नहीं थी. इसके बाद जंगल शुरू हो जाता था. जंगल लगभग दस मील तक के इलाके में फैला हुआ था.
मजदूरों ने पुलिस को रोका, लेकिन दरोगा करीम बख्श तीन-चार कांस्टेबुलों के साथ जबर्दस्ती अंदर घुस गया. उसने फाइलों, रजिस्टरों, पर्चों को बटोरना शुरू किया. तभी टेपचू सिपाहियों को धकियाते हुए अंदर पहुंचा और चीखा, ''कागज-पत्तर पर हाथ मत लगाना दरोगाजी, हमारी डूटी आज यूनियन की तकवानी में हैं. हम कहे दे रहे हैं. आगा-पीछा हम नहीं सोचते, पर तुम सोच लो, ठीक तरह से.''
दरोगा चौंका. फिर गुस्से में उसकी आंखें गोल हो गई, और नथुने सांढ की तरह फडक़ने लगे, ''कौन है मादर ़ ़तूफानी सिंह, लगाओ साले को दस डंडे.''
सिपाही तूफानी सिंह आगे बढा तो टेपचू की लंगडी ने उसे दरवाजे के आधा बाहर और आधा भीतर मुर्दा छिपकली की तरह ज़मीन पर पसरा दिया. दरोगा करीम बख्श ने इधर-उधर देखा. सिपाही मुस्तैद थे, लेकिन कम पड रहे थे. उन्होंने इशारा किया लेकिन तब तक उनकी गर्दन टेपचू की भुजाओं में फंस चुकी थी.
मजदूरों का जत्था अंदर आ गया और तडातड लाठियां चलने लगीं. कई सिपाहियों के सिर फूटे. वे रो रहे थे और गिडग़िडा रहे थे. टेपचू ने दरोगा को नंगा कर दिया था.
पिटी हुई पुलिस पलटन का जुलूस निकाला गया. आगे-आगे दरोगाजी, फिर तूफानी सिंह, लाइन से पांच सिपाहियों के साथ. पीछे-पीछे मजदूरों का हुजूम ठहाके लगाता हुआ. पुलिस वालों की बुरी गत बनी थी. यूनियन ऑफिस से निकलकर जुलूस कारखाने के गेट तक गया, फिर सिपाहियों को छोडक़र मस्ती और गर्व में डूबे हुए लोग लौट गए. टेपचू की गर्दन अकडी हुई थी और वह साल्हो दादर गाने लगा था.
अगले दिन सबेरे टेपचू झुग्गी से निकलकर टट्टी करने जा रहा था कि पुलिस ने उसे गिरफ्तार कर लिया. और भी बहुत से लोग पकडे ग़ए थे. चारों तरफ गिरफ्तारियां चल रही थीं.
टेपचू को जब पकडा गया तो उसने टट्टीवाला लोटा खींचकर तूफानीसिंह को मारा. लोटा माथे के बीचोंबीच बैठा और गाढा गंदा खून छलछला आया. टेपचू ने भागने की कोशिश की, लेकिन वह घेर लिया गया. गुस्से में पागल तूफानी सिंह ने तडातड ड़ंडे चलाए. मुंह से बेतहाशा गालियां फूट रही थीं.
सिपाहियों ने उसे जूते से ठोकर मारी. घूंसे-लात चलाए. दरोगा करीम बख्श भी जीप से उतर आए. यूनियन ऑफिस में की गई अपनी बेइज्जती उन्हें भूली नहीं थी.
दरोगा करीम बख्श ने तूफानी सिंह से कहा कि टेपचू को नंगा किया जाए और गांड में एक लकडी ठोंक दी जाए. तूफानी सिंह ने यह काम सिपाही गजाधर शर्मा के सुपुर्द किया.
गजाधर शर्मा ने टेपचू का निकर खींचा तो दरोगा करीम बख्श का चेहरा फक हो गया. फिरोजा ने टेपचू की बाकायदा खतौनी कराई थी. टेपचू दरोगा का नाम तो नही जानता था, लेकिन उसका चेहरा देखकर जात जरूर जान गया. दरोगा करीम बख्श ने टेपचू की कनपटी पर एक डंडा जमाया, ''मादर ़ ़नाम क्या है तेरा?''
टेपचू ने कुर्ता उतारकर फेंक दिया और मादरजाद अवस्था में खडा हो गया, ''अल्ला बख्श बलद अब्दुल्ला बख्श साकिन मडर मौजा पौंडी, तहसील सोहागपुर, थाना जैतहरी, पेशा मजदूरी - ''इसके बाद उसने टांगे चौडी क़ीं, घूमा और गजाधर शर्मा, जो नीचे की ओर झुका हुआ था, उसके कंधे पर पेशाब की धार छोड दी, ''जिला शहडोल, हाल बासिंदा बैलाडिला ़ ़''
टेपचू को जीप के पीछे रस्सी से बांधकर डेढ मील तक घसीटा गया. सडक़ पर बिछी हुई बजड़ी अौर मुरम ने उसकी पीठ की पर्त निकाल दी. लाल टमाटर की तरह जगह-जगह उसका गोश्त बाहर झांकने लगा.
जीप कस्बे के पार आखिरी चुंगी नाके पर रूकी. पुलिस पलटन का चेहरा खूंखार जानवरों की तरह दहक रहा था. चुंगी नाकेपर एक ढाबा था. पुलिस वाले वहीं चाय पीने लगे.
टेपचू को भी चाय पीने की तलब महसूस हुई, ''एक चा इधर मारना छोकडे, क़डक़.'' वह चीखा. पुलिस वाले एक-दूसरे की ओर कनखियों से देखकर मुस्कराए. टेपचू को चाय पिलाई गई. उसकी कनपटी पर गूमड उठ आया था और पूरा शरीर लोथ हो रहा था. जगह-जगह से लहू चुहचुहा रहा था.
जीप लगभग दस मील बाद जंगल के बीच रूकी. जगह बिलकुल सुनसान थी. टेपचू को नीचे उतारा गया. गजाधर शर्मा ने एक दो डंडे और चलाए. दरोगा करीम बख्श भी जीप से उतरे और उन्होंने टेपचू से कहा, ''अल्ला बख्श उर्फ टेपचू, तुम्हें दस सेकेंड का टाइम दिया जाता है. सरकारी हुकुम मिला है कि तुम्हारा जिला बदल कर दिया जाए. सामने की ओर सडक़ पर तुम जितनी जल्द दूर-से-दूर भाग सकते हो, भागो. हम दस तक गिनती गिनेंगे.''
टेपचू लंगडाता-डगमगाता चल पडा. करीम बख्श खुद गिनती गिन रहे थे. एक-दो-तीन-चार-पांच.
लंगडे, बुढे, बीमार बैल की तरह खून में नहाया हुआ टेपचू अपने शरीर को घसीट रहा था. वह खडा तक नहीं हो पा रहा था, चलने और भागने की तो बात दूर थी.
अचानक दस की गिनती खत्म हो गई. तूफानी सिंह ने निशाना साधकर पहला फायर किया धांय.
गोली टेपचू की कमर में लगी और वह रेत के बोरे की तरह जमीन पर गिर पडा. कुछ सिपाही उसके पास पहुंचे. कनपटी पर बूट मारी. टेपचू कराह रहा था, ''हरामजादो.''
गजाधर शर्मा ने दरोगा से कहा, ''साब अभी थोडा बहुत बाकी है.'' दरोगा करीम बख्श ने तूफानी सिंह को इशारा किया. तूफानी सिंह ने करीब जाकर टेपचू के दोनों कंधों के पास, दो-दो इंच नीचे दो गोलियां और मारीं, बंदूक की नाल लगभग सटाकर. नीचे की जमीन तक उधड ग़ई.
टेपचू धीमे-धीमे फडफ़डाया. मुंह से खून और झाग के थक्के निकले. जीभ बाहर आई. आंखें उलटकर बुझीं. फिर वह ठंडा पड ग़या.
उसकी लाश को जंगल के भीतर महुए की एक डाल से बांधकर लटका दिया गया था. मौके की तस्वीर ली गई पुलिस ने दर्ज किया कि मजदूरों के दो गुटों में हथियारबंद लडाई हुई. टेपचू उर्फ अल्ला बख्श को मारकर पेड में लटका दिया गया था. पुलिस ने लाश बरामद की. मुजरिमों की तलाश जारी है.
इसके बाद टेपचू की लाश को सफेद चादर से ढककर संदूक में बंद कर दिया गया और जीप में लादकर पुलिस चौकी लाया गया.
रायगढ बस्तर, भोपाल सभी जगह से पुलिस की टुकडियां आ गई थीं. सी.आर.पी.वाले गश्त लगा रहे थे. चारों ओर धुंआ उठ रहा था. झुग्गियां जला दी गई थीं. पचासों मजदूर मारे गए. पता नहीं क्या-क्या हुआ था.
सुबह टेपचू की लाश को पोस्टमार्टम के लिए जिला अस्पताल भेजा गया. डॉ.एडविन वर्गिस ऑपरेटर थिएटर में थे. वे बडे धार्मिक किस्म के ईसाई थे. ट्राली-स्ट्रेचर में टेपचू की लाश अंदर लाई गई. डॉ.वर्गिस ने लाश की हालत देखी. जगह-जगह थ्री-नॉट-थ्री की गोलियां धंसी हुई थीं. पूरी लाश में एक सूत जगह नहीं थी, जहां चोट न हो.
उन्होंने अपना मास्क ठीक किया, फिर उस्तरा उठाया. झुके और तभी टेपचू ने अपनी आंखें खोलीं. धीरे से कराहा और बोला, ''डॉक्टर साहब, ये सारी गोलियां निकाल दो. मुझे बचा लो. मुझे इन्हीं कुत्तों ने मारने की कोशिश की है.''
डॉक्टर वर्गिस के हाथ से उस्तरा छूटकर गिर गया. एक घिघियाई हुई चीख उनके कंठ से निकली और वे ऑपरेशन रूम से बाहर की ओर भागे.
आप कहेंगे कि ऐसी अनहोनी और असंभव बातें सुनाकर मैं आपका समय खराब कर रहा हूं. आप कह सकते हें कि इस पूरी कहानी में सिवा सफेद झूठ के और कुछ नहीं है.
मैंने भी पहले ही अर्ज किया था कि यह कहानी नहीं है, सच्चाई है. आप स्वीकार क्यों नहीं कर लेते कि जीवन की वास्तविकता किसी भी काल्पनिक साहित्यिक कहानी से ज्यादा हैरत अंगेज होती है. और फिर ऐसी वास्तविकता जो किसी मजदूर के जीवन से जुडी हुई हो.
हमारे गांव मडर के अलावा जितने भी लोग टेपचू को जानते हैं वे यह मानते हैं कि टेपचू कभी मरेगा नहीं - साला जिन्न है.
आपको अब भी विश्वास न होता हो तो जहां, जब, जिस वक्त आप चाहें, मैं आपको टेपचू से मिलवा सकता हूं.
उदय प्रकाश

गुरुवार, 26 फ़रवरी 2009

अनाथ आश्रम से वृद्धाश्रम तक


डॉ. महेश परिमल
इन दिनों युवाओं में एक अजीब तरह का जुनून देखने में आ रहा है, जिसमें कुछ नया करने की ललक दिखाई दे रही है। लोग हमेशा युवाओं को दोष देते हैं। सच है आज के कानफाड़ संगीत के शोर में कदम थिरकाते युवाओं को देखकर तो यही कहा जा सकता है कि आज की पीढ़ी दिशाहीन है। ऐसा हमेशा से कहा जाता रहा है। ऊँगली हमेशा युवाओं की ओर ही उठती है। पर इसके दूसरी ओर भी देखने का साहस जिनमें है, वे अच्छी तरह से जानते हैं कि उन पर गलत आरोप लगाया जाना उचित नहीं है। बुजुर्गों की स्थिति समाज में कभी भी सम्माननीय नहीं रही। अब भला किस पीढ़ी ने सोचा होगा कि वृद्धाश्रमों से माता-पिता लाएँ जाएँ। कहाँ तो खून के रिश्ते भी आज खोखले होने लगे हैं और कहाँ तो लोग नए तरह के रिश्ते बनाने लगे हैं, जिन्हें नई परिभाषा की आवश्यकता है।
हाल ही कुछ घटनाओं ने मुझे चौंका दिया। मेरा मानना था कि आज के युवा पश्चिमी सभ्यता के मोह में फँसकर भागे जा रहे हैं। इन्हें किसी की चिंता नहीं है। ये तो बस शार्टकट से किसी भी तरह अपना जीवन काट लेना चाहत हैं। अपने से बड़ों की इात करना तो इन्होंने सीखा ही नहीं। ये पीढ़ी कुछ भी समझने को तैयार नहीं है। लेकिन कुछ घटनाओं से वाकिफ होने पर लगा कि सचमुच इस पीढ़ी में सोचने-समझने की ताकत है। वह अपनी शक्ति और सोच को बखूबी जानती है। इस पर किसी तरह का लांछन लगाना उचित नहीं। यह पीढ़ी तो भावी भारत को दिशा देने में पूरी तरह से सक्षम है।
हुआ यूँ कि अनाथ आश्रम में पले-बढ़े दो युवाओं ने आपसी समझ दिखाते हुए शादी कर ली। इनकी शादी में बहुत से लोगों ने नवदम्पति को हृदय की गहराइयों से आशीर्वाद दिया। इसी आशीर्वाद का प्रभाव था कि शादी के बाद दोनों को लगा कि हम अनाथ हैं, तो क्या हुआ। क्या अब हमारे माता-पिता नहीं हो सकते। स्वयं माता-पिता बनने के पहले दोनों ने अपने सर पर छाँव के लिए वृद्धाश्रम की दौड़ लगाई और वहां से अपने माता-पिता खोज लाए। अब उनका जीवन सुखमय हो गया। परिवार पूरा हो गया। यह जानने के बाद सचमुच हर किसी ने उस नवविवाहित की प्रशंसा ही की।
इसी तरह की एक और घटना गुजरात में हुई। इसे भी अनोखी घटना कहा जा सकता है। खबर यह थी कि अपनी विधवा माँ के लिए जीवनसाथी की खोज में हैं भाई-बहन। पीर पराई समझने की ओर कदम बढ़ाते आज के युवाओं की यह एक बेहतर सोच है। इसके लिए उन्हें बधाई दी जानी चाहिए। इसमें युवा पुत्र का कहना था कि माँ ने केवल सात वर्ष तक ही वैवाहिक जीवन जीया। उसके बाद हम दो भाई-बहन ही रहे। एक दुर्घटना में पिता की असामयिक मौत हो गई। माँ ने एक स्कूल में पढ़ाना शुरू कर दिया। इसके बाद हमारे लालन-पालन में वह इतनी व्यस्त हो गई कि उन्हें अपने अकेलेपन का अहसास ही नहीं हुआ। बहन की शादी हो गई। मैं नौकरी के लए शहर से दूर हो गया और माँ सेवानिवृत्त हो गई। अब अकेली माँ क्या करे? मुझे लगा कि अब माँ को एक जीवनसाथी की आवश्यकता है। हालांकि इस उम्र में ऐसा सोचना एक तरह से पाप ही है। लेकिन मेरा मानना है कि माँ को अब एक ऐसा साथी मिल ही जाना चाहिए, जो उसके सुख-दु:ख में काम आ सके। पीर पराई का यह सिलसिला यहीं खत्म नहीं होता। जिस मैरिज ब्यूरो में बेटे ने माँ के लिए जीवनसाथी की खोज का आवेदन दिया, उसी में माँ ने अपने बेटे के लिए एक सुशील जीवनसाथी के लिए आवेदन किया। जब यह बात खुली, तब माँ ने बेटे की प्रशंसा करते हुए कहा कि यह अच्छी बात हे कि बेटे ने मेरे लिए कुछ बेहतर सोचने की कोशिश की। पर मैं अपने बारे में तभी कुछ सोचूँगी, जब मेरे बेटे का घर सँवर जाए। इसे कहते हैं विचारों का बेहतर तालमेल।
युवा जो एक ओर दिशाहीन होकर आतंकवाद की ओर बढ़ने में संकोच नहीं करते, वही आज कुछ नया करने की चाहत में समाज में अपना नया स्थान बनाने जा रहे हैं। बहुत मुश्किल है दूसरों के दु:ख को समझना। अक्सर युवाओं से यह शिकायत रहती है कि ये पीढ़ी सुनती नहीं है। ऐसे जुमले हर पीढ़ी के युवाओं को सुनने पड़ते हैं। लेकिन हर पीढ़ी के युवाओं ने कुछ न कुछ तो ऐसा किया ही है, जिससे उसकी अलग ही पहचान कायम हुई है। ऊपर की घटनाओं को जानकर युवाओं पर इस तरह का आरोप लगाना बेमानी होगा। युवा हमेशा से ही कुछ अलग सोचते ही हैं, पर उनकी सोच को अक्सर दिशा नहीं मिल पाती, इसलिए वे कुछ ऐसा कर जाते हैं, जिससे उनकी छबि धूमिल हो जाती है। जिन्हें दिशा मिल जाती है, वे कुछ नया करने मे सक्षम होते हैं।
देखा जाए, तो इसके पीछे कुछ संस्कार हैं, जो अनजाने में युवाओं को माता-पिता से प्राप्त होते हैं। पर अनाथ आश्रम में किस तरह के संस्कार मिलते हैं, जो वहाँ पल-बढक़र युवा कुछ नया सोच रहे हैं, यह एक शोध का विषय है। निश्चित रूप से उन अनाथ आश्रमों का वातावरण एक परिवार की तरह होगा, जहाँ बिना किसी भेदभाव के बच्चों का लालन-पालन होता होगा। धन्य हैं वे अनाथ आश्रम और उनके संचालक। दूसरी ओर यदि एक युवा अपनी विधवा माँ के लिए जीवनसाथी की खोज करता है, तो इसे भी संस्कार ही कहा जाएगा। कहीं तो कुछ ऐसा है, जो इन युवाओं को आज के युवाओं से अलग करता है। आखिर क्या है वह चीज? कोई बता सकता है?
डॉ. महेश परिमल

बुधवार, 25 फ़रवरी 2009

तीसरी कसम: साहित्यिक कृति पर बनी कालजयी फिल्म


भले ही गीतकार शैलेन्द्र (फिल्म निर्माता) को इस फिल्म की वजह से अपनी जान गंवानी पडी हो, पर सच है कि तीसरी कसम ने शैलेन्द्र को अमर कर दिया। शैलेन्द्र ही क्यों, राजकपूर को अभिनय की अप्रतिम ऊंचाई तक पहुंचाने और कथाकार रेणु के नाम को आमजन तक पहुंचाने का काम भी इस फिल्म ने किया।
सेल्यूलाइड पर लिखी एक हृदयस्पर्शी कविता तीसरी कसम सिर्फ इसलिए एक यादगार फिल्म नहीं है कि इसे सर्वोत्तम फीचर फिल्म के लिए राष्ट्रपति का स्वर्ण कमल पुरस्कार प्राप्त हुआ, बल्कि इसलिए भी कि मित्रों और खासतौर पर राजकपूर के इस आग्रह और सुझाव को भी गीतकार से पहली बार निर्माता बने शैलेन्द्र ने विनम्रतापूर्वक अस्वीकार कर दिया कि फिल्म की व्यावसायिक सफलता के लिये मूलकथा में मामूली हेरफेर कर दिया जाये। वस्तुत: शैलेन्द्र को इस कहानी से प्यार था, और वे इस कथा को जस का तस फिल्माना चाहते थे। उन्हीं के आग्रह पर रेणु जी ने स्वयं फिल्म के संवाद लिखे।
रेणु की मूल कथा मारे गये गुल्फाम पर आधारित यह फिल्म बासु भट्टाचार्य का भी बेहतरीन मास्टरपीस माना जाता है। हालांकि उन्होंने इन्हीं वर्षो में कई और समानान्तर फिल्में निर्देशित कीं, जैसे- अनुभव (1971) आविष्कार (1973) और गृह प्रवेश (1980) लेकिन तीसरी कसम जैसा जादू और कोई फिल्म कर न सकी। फिल्म की पृष्ठभूमि को देखते हुए प्रारंभ में फिल्म की शूटिंग की योजना बिहार और नेपाल के ग्रामीण इलाकों को ध्यान में रखकर बनाई गई थी, लेकिन कई कारणों से वास्तविक फिल्म इगतपुरी (महाराष्ट्र) में शूट की गई। (पूर्व में मधुमती फिल्म की शूटिंग भी यहीं की गई थी।) कथा में उपस्थित और फिल्म में जतन से संवार कर रखे गये चार तत्व इस फिल्म को चिर-स्मरणीय बनाते हैं। एक हीरामन और हीराबाई के बीच के सहज मानवीय संबंधों की ऊर्जा और धीरे-धीरे पनपी स्वाभाविक अंतरंगता (भौतिक नहीं) दर्शक जिसके साथ अपने को आत्मसात करता है। हीराबाई को हीरामन का जमीनी चरित्र और संगीतमय जीवन-दर्शन प्रभावित करता है, जिसे वह अपने गीतों के माध्यम से प्रस्तुत करता है, वहीं हीरामन को नौटंकी वाली बाई की बेबसी बांधती है। इस संबंध को कोई नाम नहीं दिया जा सकता। यह संबंध समाप्त होने के लिए बना है, इस दर्द का एहसास दर्शक को शुरू से हो जाता है। इन बेहद मुश्किल और संश्लिष्ट चरित्रों को राज और वहीदा रहमान ने जिस खूबसूरती और सहजता से निभाया है वह देखने की चीज है।
भाव-भंगिमा और आंखों से भावनाओं को, उल्लास और दर्द को व्यक्त करवा लेने की सफलता ही निर्देशक की सफलता है। राज की शो मैन वाली छवि इस फिल्म में टूट-टूट कर बिखर गई है और यहां है बात-बात में लजाने, शरमाने वाला एक गंवई, ठेठ गाडीवान! दूसरी तरफ नृत्य-कौशल के चलते हीराबाई ने नौटंकी वाली बाई के चरित्र को जीवन्त बना दिया है। फिल्म का दूसरा सशक्त पक्ष है इसका स्वाभाविक चित्रण, छायांकन और दृश्य संयोजन, जो कथा की मांग थी। सत्यजीत रे की कई फिल्में करने वाले सुब्रत मित्रा का छायांकन बेमिसाल तो है ही, दृश्य की मांग और प्रकृति के अनुसार भी है। गांव के नैसर्गिक सौंदर्य को लगभग अकृत्रिम प्रकाश व्यवस्था के साथ श्वेत-श्याम फिल्मांकित किये जाने से एक-एक शॉट का सौंदर्य कथा की काव्यात्मकता के साथ मेल खाता हुआ है। प्रतीकात्मक बिम्बों का इस्तेमाल छायाकार और निर्देशक की पटकथा पर पकड को रेखांकित करता है। फिल्म का तीसरा सशक्त पक्ष है इसके संवाद, जो स्वयं रेणु के लिखे हुये हैं। संवादों की रवानगी, सहजता और ठेठपन कथा को कहीं से बिखरने नहीं देते। मूल कथा लेखक ही फिल्म का संवाद लिखे, ऐसे कम उदाहरण मिलेंगे, परन्तु तीसरी कसम के संवाद दर्शक की जुबान पर अनायास चढ जाते हैं, तो इसलिए कि इसमें मीठा सा सोंधापन है।
फिल्म का चौथा सशक्त पहलू है इसके गीत और मधुर संगीत। हसरत जयपुरी और शैलेन्द्र ने इस फिल्म के गीत लिखते वक्त न केवल फिल्म के समूचे परिवेश और चरित्रों को ध्यान में रखा, बल्कि लोकधुन और नौटंकी विधा को भी साथ लिया। (पान खाये सैंय्या हमारो..)। हीरामन के समूचे चरित्र को उभारता सजन रे झूठ मत बोलो, खुदा के पास जाना है.. या फिर दुनियां बनाने वाले, क्या तेरे मन में समाई... के बहाने हीरामन का गांव की लडकी महुआ को याद करना, या फिर नौटंकी शैली में लिखा गया गीत आ, अब तो आजा, रात ढलने लगी.. ऐसे गीत हैं जो आज भी कान में पडते ही जुबान पर आ जाते हैं। ग्रामीण परिवेश का एक और गीत चलत मुसाफिर मोह लियो रे.. भी एक सदाबहार गीत है। शंकर जयकिशन का संगीत शोर रहित और कर्णप्रिय तो है ही, कथ्य के साथ न्याय भी करता है।
आज जबकि भारतीय फिल्म जगत से अच्छी साहित्यिक कृतियों का नाता लगभग टूट चुका है। फिल्म उद्योग की जटिलतायें इतनी बढ चुकी हैं कि कोई निर्माता पचासों करोड खर्च करके किसी साहित्यिक रचना पर फिल्म बनाने का खतरा चाहकर भी मोल नहीं ले सकता, तीसरी कसम जैसी 70 से 90 के दशक में बनी ऐसी तमाम फिल्मों का याद आना स्वाभाविक है। आज भी बंगला फिल्म जगत में साहित्यिक फिल्मों के अच्छे दर्शक हैं। दूसरी तरफ हिंदी कृतियों की कमी नहीं, पर फिल्में नहीं बनतीं। कारण कई हैं, पर एक बडा कारण है हिन्दी लेखकों का अलग-थलग कटे रहना और हिन्दी कृतियों का सीमित पाठक वर्ग। एक दूसरी वजह है अच्छे पटकथा लेखकों का अभाव, जो एक अच्छी कृति को एक सफल पटकथा में बदल सकें।
[प्रभु झिंगरन]

मंगलवार, 24 फ़रवरी 2009

आखिर क्या चाहते हैं दूध का विरोध करने वाले?


डॉ. महेश परिमल
देश में एक बार फिर देश में गाय के दूध का विरोध होने लगा है। इसमें मेनका गांधी का नाम प्रमुख है। गाय का दूध का विरोध करने वालों के अपने-अपने तर्क हैं। अपने तर्कों से यह सब यह बताने की कोशिश कर रहे हैं कि लोग शाकाहार की ओर न बढें अौर मांसाहार का अपना लें। आजकल दूध में जिस तरह से विभिन्न रसायनों की मिलावट हो रही है, उसे आधार बनाकर एक तरह से साजिश का हिस्सा बन रहे हैं, ये दूध का विरोध करने वाले। लेकिन इनके तर्क इतने लचर हैं कि भारतीय मान्यताओं के आगे ये तर्क बिलकुल ही टिक नहीं पाते। वास्तव में देखा जाए, तो दूध एक संपूर्ण आहार है। दूध का विरोध करने वाले मांसाहार के लिए वातावरण बना रहे हैं। वास्तविकता यह है कि यह सब एक साजिश के तहत हो रहा है, जिसमें एक विदेशी संस्था हमारे देश को भरमाने में लगी है।
पेटा-इंडिया नाम की एक मूल अमेरिकी संस्था द्वारा एक प्रस्ताव हमारे सामने आया है, जिसमें यह कहा गया है कि भारत में जिस तरह से गाय-भैंसों पर अत्याचार हो रहे हैं, इससे लोग यदि दूध का सेवन करना बंद कर दें, तो उन पर अत्याचार कम हो जाएँगे। इसके लिए उनका यही तर्क है कि गाय-भैंस के पालने वाले उनका अधिक से अधिक दूध निकालने के लिए उन पर अत्याचार कर रहे हैं। जब लोग दूध का सेवन बंद कर देंगे, तो उन पर होने वाले अत्याचार कम हो जाएँगे। सोचो यदि लोग दूध पीना बंद कर देंगे, तो हमारे देश के लाखों पशुओं का फिर क्या काम? उन पशुओं की उपयोगिता समाप्त हो जाएगी और उन्हें कतलखाने का रास्ता दिखा दिया जाएगा। एक और तर्क यह है कि लोग जब दूध का सेवन बंद कर देंगे, तो वे कुपोषण का शिकार हो जाएँगे। इससे बचने के लिए लोग विवश होकर मांसाहार की शरण में चले जाएँगे। अनजाने में दूध का विरोध करने वाले मांसाहार के लिए हमें प्रेरित कर रहे हैं।
पेटा-इंडिया दूध का विरोध करने के लिए जो कारण बता रही है, वे अत्यंत हास्यास्पद हैं। इसमें अधिकांश कारण तो भारत देश नहीं, अपितु अमेरिका में ही लागू होते हैं। पेटा-इंडिया कहता है:- दिन-प्रतिदिन दूध की बढ़ती माँग को देखते हुए पशु-पालक गाय का बार-बार गर्भाधान करवा रहे हैं, उन्हें बराबर खुराक नहीं दी जा रही है, साथ ही उन्हें दिन-भर जंजीरों से बाँधकर रखा जाता है। भारत के संबंध में यह बात पूरी तरह से बेबुनियाद साबित होती है। क्यों यह संस्था जो कुछ कह रही है, वह सब-कुछ यूरोपीय देशों में होता है। भारत में पशुओं का प्राकृतिक रूप से गर्भाधान होता है। यहाँ कृत्रिम गर्भाधान का प्रतिशत मात्र दस है। देखा जाए, तो कृत्रिम गर्भाधान में क्रूरता शामिल है। अधिकांश कृत्रिम गर्भाधान जर्सी या होलिस्टिन जैसी संकर गायों का ही होता है। प्राणीशास्त्री मानते हैं कि विदेशी जर्सी या होलिस्टिन गाय हकीकत में गाय नहीं है, बल्कि ये सूअर के वर्ग का एक प्राणी है, जिसका बाह्य आकार और कद गाय जैसा है। इसीलिए संकर गाय के दूध में गाय के दूध का गुण देखने में नहीं आता।
पेटा-इंडिया की उपरोक्त दलील कितनी हास्यास्पद है, यह तो इसी से पता चलता है कि क्या पशुओं को कम खुराक देकर उनसे अधिक दूध प्राप्त किया जा सकता है? भारत के पशुपालक भले ही अनपढ़ हों, पर यह अच्छी तरह से जानते हैं कि पशुओं को जितनी अधिक और अच्छी खुराक दी जाएगी, पशु उतना ही अधिक दूध देगा। खुराक न मिलने के कारण पशुओं की मौत के पीछे घास वाली जमीन की कमी है। घास वाले मैदानों पर अतिक्रमण हो गया है, वहाँ पर अब कांक्रीट के जंगल तैयार हो गए हैं। यदि घासचारे का उत्पादन बढ़े, तो देश में एक भी पशु भूख से न मरे। पर सरकार की नीतियाँ ही ऐसी नहीं हैं कि पशुओं के लिए कुछ अलग हो पाए।
शाकाहाहरयों को यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि शरीर को आवश्यक सभी पदार्थों को प्राप्त करना हो और निरोगी रहना हो, तो दूध का कोई विकल्प नहीं है। दूध एक संपूर्ण आहार है। आयुर्वेद ने गाय के दूध की मुक्त कंठ से प्रशंसा की है। आयुर्वेद के अनुसार गाय का दूध पीने से शरीर को स्फूर्ति और मजबूती मिलती है। बुद्धि और स्मृति प्रबल होती है, ऑंखों की रोशनी बढ़ती है, आयुष्य प्राप्त होता है। गाय का दूध वातरोग और पित्तरोग में बहुत ही लाभदायक है। जीर्ण वर, क्षय, तृषा, थकान, जलन और कमजोरी में अत्यंत लाभकारी है। आयुर्वेद ने गाय के दूध को अमृततुल्य और आरोग्यप्रद बताया है। हमारे पास एक तरफ हजारों वर्षों से प्रतिष्ठित आयुर्वेद के ऋषि-मुनियों का अनुभव है, तो दूसरी तरफ एक विदेशी संस्था द्वारा दूध न पीने के खोखले तर्क हैं। यह अवश्य जान लें कि विदेशी संस्था की नीयत बिलकुल ही साफ नहीं है।
पेटा-इंडिया दूध के विकल्प के रूप में सोया मिल्क, नींबू का शरबत, नारियर पानी या फिर आइस टी पीने की सलाह देती है। दूध में सुपाच्य पोषण का जो खजाना मिलता है, क्सया वह सब-कुछ उपरोक्त चीजों में मिलेगा। इन्हें दूध का विकल्प कैसे कहा जा सकता है। क्या तीन महीने के नन्हें मासूम को नींबू का शरबत या आइस टी दी जा सकती है? क्या इससे उसकी तंदरुस्ती कायम रह सकती है। पेटा-इंडिया शायद सोया मिल्क और आइस टी बनाने वाले उद्योगों के लाभ लिए ही ऐसा कह रही है।कुछ लोग यह भी कहते हैं कि दूध बच्चों की खुराक है। बड़ी उम्र के लोग दूध पचा नहीं पाते हैं। यह दलील एक वाहियात है। हिमालय में रहने वाले अनेक योगियों ने पूरे जीवन दूध पर ही निर्भर रहे, उन्हें तो कुछ नहीं हुआ।
यह सच है कि आजकल दूध की माँग बढ़ने से इसमें यूरिया और दूसरे जंतुनाशक जहरीले रसायनों की मिलावट की जा रही है। इसके लिए तो हमारे देश की कानून-व्यवस्था दोषी है। आजतक किसी भी मिलावटखोर को कड़ी सजा नही दी गई। लोग तो जीवन-रक्षक दवाओं में भी मिलावट करने से नहीं चूकते, फिर दूध की क्या बिसात? मिलावट करने वालों पर कानून में कड़ाई का प्रावधान नहीं होने के कारण आजकल हर चीज में मिलावट हो रही है। इस दिशा में न तो राय सरकारें सचेत हैं और न ही केंद्र सरकार। एक साजिश के तहत सब-कुछ बेखौफ जारी है।
डॉ. महेश परिमल

सोमवार, 23 फ़रवरी 2009

'स्लमडाग मिलेनियर' को सर्वश्रेष्ठ फिल्म का आस्कर


लास एंजिलिस। दो आस्कर जीतने वाले ए आर रहमान ने सोमवार को नया इतिहास रच डाला जिन्हें 'स्लमडाग मिलेनियर' के लिए सर्वश्रेष्ठ मौलिक संगीत और 'जय हो' के लिए सर्वश्रेष्ठ मौलिक गीत का पुरस्कार मिला। 'स्लमडाग मिलेनियर' की झोली में अब तक आठ अवार्ड गिर चुके हैं। वहीं, नन्हीं सी लड़की पिंकी की कहानी स्माइल पिंकी ने भी सर्वश्रेष्ठ डाक्यूमेंटरी [लघु] का आस्कर पुरस्कार जीत कर तहलका मचा दिया है।
वहीं, पुरस्कार पाने के बाद रहमान ने कहा कि इतना रोमांचित और भयभीत तो मैं अपनी शादी के समय ही था जैसा आज महसूस कर रहा हूं। रहमान ने हिंदी फिल्म 'दीवार' का मशहूर डायलाग 'मेरे पास मां है' बोलते हुए अपनी मां को इसका श्रेय दिया। उन्होंने कहा कि हिंदी फिल्म का एक मशहूर डायलाग है कि मेरे पास मां है। मेरी मां भी यहां है और यह उनका ही आशीर्वाद है कि मुझे यह पुरस्कार मिला। मैं उन्हें यहां आने के लिए धन्यवाद देना चाहता हूं।
रहमान को 'जय हो' के लिए दूसरा आस्कर मिला। इस गीत को सुखविंदर सिंह और महालक्ष्मी अय्यर ने गाया है। रहमान ने मंच पर 'जय हो' और 'ओ साया' पेश भी किया जिसमें गायक जान लीजैंड उनके साथ थे। रहमान ने फिल्म की पूरी टीम को धन्यवाद देते हुए कहा कि मैं गुलजार साब, डैनी बोयल, चेन्नई और मुंबई में अपने सारे संगीतकारों का शुक्रगुजार हूं। मुझपर अल्लाह का करम रहा।
रहमान ने कहा कि मुझे जीवन में हमेशा प्यार और नफरत में से एक को चुनने का मौका मिला और मैने प्यार को ही चुना। यह फिल्म भी आशावादिता का संदेश देती है। उन्होंने कहा कि मैं जब भी पुरस्कार जीतता हूं तो तमिल में कहता हूं.. एल्ला पुगाझलुम इरावनुकू, यानी मैं सारी शोहरत भगवान को समर्पित करता हूं।
रहमान को इस फिल्म के लिए बाफ्टा और गोल्डन ग्लोब मिल चुका है। स्लमडाग ने आठ आस्कर पुरस्कार जीते। वह भानु अथैया सत्यजीत रे और रेसुल पूकुट्टी के साथ आस्कर जीतने वाले भारतीयों की जमात में शामिल हो गए। भानु को रिचर्ड एटेनबरो की 'गांधी' के लिए सर्वश्रेष्ठ कास्ट्यूम डिजाइन का आस्कर मिला था जबकि रे को सिनेमा में योगदान के लिए विशेष आस्कर दिया गया था। रेसुल ने 'स्लमडाग मिलेनियर' में ध्वनि मिश्रण के लिए आस्कर जीता है।
एनीमेशन श्रेणी में 'वाल ई' को सर्वश्रेष्ठ एनीमेटेड फीचर फिल्म का आस्कर और 'ला मेसन एन पेटिट्स क्यूब्स' को सर्वश्रेष्ठ लघु फिल्म का आस्कर मिला।
आस्कर अवार्ड:-
'द क्यूरियस केस आफ बेंजामिन बटन' को सर्वश्रेष्ठ कला निर्देशन का आस्कर।
'द क्यूरियस केस आफ बेंजामिन बटन' को सर्वश्रेष्ठ मेकअप का आस्कर।
'स्पाइलजागलैंड ' [टायलैंड] को सर्वश्रेष्ठ लाइव एक्शन शार्ट फिल्म का आस्कर पुरस्कार।
हीथ लेडगर को मरणोपरांत 'द डार्क नाइट' के लिए सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेता का आस्कर।
'मैन आन वायर' को सर्वश्रेष्ठ डाक्यूमेंटरी फीचर का आस्कर।
'द क्यूरियस केस आफ बेंजामिन बटन' को सर्वश्रेष्ठ दृश्य प्रभावों [विजुअल इफेक्ट्स] का आस्कर पुरस्कार।
'द डार्क नाइट' को सर्वश्रेष्ठ ध्वनि संपादन का आस्कर।
रेसुल पोकुट्टी ने इयान टैप और रिचर्ड प्राइक के साथ 'स्लमडाग मिलेनियर' के लिए सर्वश्रेष्ठ ध्वनि मिश्रण का आस्कर जीता।
'स्लमडाग मिलेनियर' को सर्वश्रेष्ठ फिल्म संपादन का आस्कर पुरस्कार।
पेनोलेप क्रूज को 'विकी क्रिस्टीना बार्सीलोना' के लिए सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेत्री का आस्कर।
डस्टिन लांस ब्लैक को 'मिल्क' के लिए सर्वश्रेष्ठ मूल पटकथा का आस्कर।
ए आर रहमान को ' स्लमडाग मिलेनियर' के लिए सर्वश्रेष्ठ ओरिजिनल स्कोर का आस्कर।
'स्लमडाग मिलेनियर' के गीत 'जय हो' को सर्वश्रेष्ठ मौलिक गीत का आस्कर। गुलजार ने यह गीत लिखा है।
डैनी बोयल को 'स्लमडाग मिलेनियर' के लिए सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का आस्कर।
केट विंसलेट को 'द रीडर' में अपने किरदार के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का आस्कर।
सीन पेन को 'मिल्क ' के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का आस्कर।

जरूरत नहीं है पुलिस से खौफ खाने की


डॉ. महेश परिमल
पुलिस का भय हर सच्चे इंसान को होता है। पुलिस भी ऐसे ही इंसानों को खोजती फिरती है, ताकि उस पर अपनी वर्दी का रौब गाँठ सके। इसकी वजह साफ है कि पुलिस को असीमित अधिकार मिले हुए हैं। इन अधिकारों के बल पर ही पुलिस हर किसी से कहती है 'यादा चूँ चपड़ की, तो सीधे अंदर कर दूँगा। पीसते रहना जिंदगी भर जेल में चक्की।' लेकिन अब ऐसा नहीं होगा, संसद में पुलिस को असीमित अधिकारों पर कटौती करने वाला विधेयक पारित हो गया है, बस राष्ट्रपति के हस्ताक्षर की आवश्यकता है। फिर पुलिस किसी भी निर्दोष को न तो सता सकती है और न ही किसी पर धौंस जमा सकती है।
अधिक नहीं, करीब 25 वर्ष पहले जिस अखबार के दफ्तर में काम करता था, वहाँ से हर महीने उस क्षेत्र के पुलिस थाने में स्टेशनरी के नाम पर कागज और रिफिल की आपूर्ति की जाती थी। बाद में समझ में आया कि देश के सभी थानों में आज भी स्टेशनरी के नाम पर केवल 25 पैसे महीने का बजट है। ऐसा आज भी कई थानों में है। यही नहीं, आज देश के पुलिस थानों में जो भी नियम-कायदे हैं, वे ऍंगरेजों द्वारा सन् 1858 में बनाए गए नियम ही हैं। हमारे संविधान को बने भले ही 59 वर्ष बीत गए हों, पर आपराधिक कानून आज भी ऍंगरेजों के बनाए हुए लागू हैं और सख्ती से उसका पालन किया और कराया जा रहा है। यह भले ही शोध का विषय हो सकता है, पर सच यही है कि हम आज भी मानसिक रूप से ऍंगरेजों के गुलाम ही हैं।
आज साधारण नागरिक पुलिस से भय खाती है, इसकी वजह यही है कि पुलिस को असीमित अधिकार मिले हुए हैं। वह किसी भी आम आदमी को साधारण सी बात पर विभिन्न धाराओं के तहत जेल भेज सकती है। यदि यह संभव न हुआ, तो पुलिस उसे हिरासत में तो कई दिनों तक रख ही सकती है। यह कानून हमारा बनाया हुआ नहीं है, इसे तो ऍंगरेजों ने अपनी सुविधा को देखते हुए हम पर शासन करने के लिए बनाया था। देश तो स्वतंत्र हो गया, पर हमारी मानसिक गुलामी की जंजीरें हम पर कसी रही। हम देशवासी ऍंगरेजों के उसी नियम-कानूनों को ढोते रहे। पुलिस की स्वच्छ छबि की बात हमेशा की जाती है, पर उसे मिले असीमित अधिकारों के बारे में कोई ऊँगली नहीं उठाता। लेकिन अब हालात बदले हैं। दिसम्बर 08 में संसद में एक विधेयक पारित किया गया है। इस विधेयक के अनुसार जिस अपराध में सात वर्ष से कम कैद की सजा हो, उसमें अदालत की मंजूरी के बिना आरोपी की धरपकड़ करने का अधिकार पुलिस से छीन लिया गया है। इस कारण अब खून और बलात्कार के आरोप के सिवाय लगभग तमाम नागरिक पुलिस की धरपकड़ के आतंक से बच जाएँगे। ऍंगरेजों ने अपनी प्रजा को गुलाम बनाने के लिए कई तरह के कानून बनाए। उससे प्रजा को छुटकारा दिलाने की दिशा में यह महत्वपूर्ण कदम है। क्रिमीनल प्रोसीजर कोड में सुधार करने वाले इस विधेयक पर राष्ट्रपति के हस्ताक्षर होते ही यह कानून अमल में आ जाएगा।
सवाल यह उठता है कि सरकार को अभी ध्यान में आया कि देश में अभी भी ऍंगरेजों के बनाए कानून ही चल रहे हैं? क्या इसके पहले याद नहीं आया। अब जब इस दिशा में सरकार ने सुधार की दृष्टि से कदम उठाया है, तो फिर उस कानून को इतना पेचीदा बनाने की क्या आवश्यकता थी। कानून में सुधार अवश्य हुआ है, पर लगता है कि सरकार अभी भी पुलिस को संरक्षण देने में लगी हुई है। बिना किसी सुबूत के जिस इंसान को पुलिस की मिलीभगत से जेल भेज दिया गया हो और वहाँ उसे लम्बे समय तक सजा भुगतनी पड़ी हो, अंत में जब वह निर्दोष छूट जाता है, तो उस इंसान के पास इतना भी अधिकार नहीं रहता कि वह उसे दोषी बताने वाले पुलिस अधिकारियों की शिकायत नहीं कर सकता। यह कैसा कानून है? इस आशय के मामलों में आज तक किसी भी पुलिस अधिकारी को सजा मिली हो, ऐसा सुनने-पढ़ने को नहीं मिला।
हमारे देश में महिला कैदियों की धरपकड़ के मामले में आज तक कोई आचारसंहिता अमल में नहीं लाई गई है। पुलिस चाहे तो किसी भी महिला को वह आधी रात में गिरफ्तार कर हिरासत में ले सकती है। इस दौरान ही उस पर बलात्कार भी हो जाता है। इस तरह के मामलों में दोषी पुलिस अधिकारियों पर शायद ही कोई कार्रवाई की जाती है। अब फौजदारी कानून में हुए सुधार के अनुसार किसी महिला आरोपी की धरपकड़ सूर्योदय से सूर्यास्त के दौरान ही की जा सकती है। इसके बाद भी पुलिस हिरासत में महिला के साथ कुछ होता है और महिला इसकी शिकायत करती है, तो इसकी जाँच अनिवार्य कर दी गई है। निश्चित रूप से इसकी जाँच कोई पुलिस अधिकारी ही करेगा, तब यह जाँच कितनी विश्वसनीय कही जा सकती है, यह सब जानते हैं।
हाल ही में केंद्र सरकार ने कोड ऑफ द क्रिमीनल प्रोसीजर में सुधार करते हुए छोटे अपराध के कै दियों को राहत देने का केवल दिखावा ही किया है। इस सुधार के अनुसार जिस अपराधी को जिस अपराध में गिरफ्तार किया गया है, उसके लिए निर्धारित सजा जितनी अवधि जेल में बिता दी हो, यदि वह फाँसी की सजा का कैेदी न हो, तो उसे जेल से मुक्त होने के लिए आवेदन कर सकता है। पर यह बात सुनने में भले ही सहज लगती हो, पर उतनी आसान नहीं है। इस तरह के कैदी को अपनी रिहाई के लिए अदालत में आवेदन देना होगा। निश्चित ही इस काम के लिए उसे वकील की सहायता की आवश्यकता होगी। जिस कैदी के पास अपनी जमानत के लिए 500 रुपए की राशि न हो, इसी वजह से उसे जेल हुई हो, वह भला वकील की फीस कहाँ से लाएगा? क्या इस देश का कोई भी निर्दोष बिना वकील के आवेदन के जेल से रिहा नहीं हो सकता?
आज देश भर की जेलों में लाखों विचाराधीन कैदी हैं, जिन्होंने निर्धारित सजा से दोगुनी समय जेल में बिता दिया है। उन्हें रिहा करने की जहमत कोई नहीं उठा रहा है। न जाने कितने ही निर्दोष लोग तो पुलिस के अत्याचार के खिलाफ आवाज उठाने के कारण ही जेल के अंदर सड़ रहे हैं। ऐसे कैदी भी बहुत हैं, जिसे गवाह बनाकर पुलिस ने अदालत में पेश किया और उन्हें अपराधी करार दिया गया। मतलब यही कि पुलिस ने अपनी मनमानी की और एक निर्दोष जेल चला गया। पुलिस को मिले इसी तरह के असीमित अधिकारों के कारण ही इस तरह का कानून अमल में लाया जाएगा। पर इसमें सरकार की मंशा क्या है? इस पर कोई भी पूरे अधिकार के साथ कुछ नहीं कह सकता।
स्वतंत्रता के इतने वर्षों बाद सरकार जागी, तो सही, पर लगता है उसकी नीयत साफ नहीं है। कानून में सुधार के नाम पर वह अब भी कानून को इतना पेचीदा बना रही है कि वह साधारण लोगों के कुछ काम न आ सके। कानून तो आज भी बलशाली लोगों के हाथों का खिलौना है। वे इसे अपनी तरह से इस्तेमाल करते ही रहते हैं। दोषी तो हमेशा एक आम आदमी ही पाया जाता है। इसी देश के कानून में यह भी लिखा है कि सौ दोषी भले ही छूट जाएँ, पर एक निर्दोष को सजा नहीं होनी चाहिए। पर ऐसा हो नहीं पाता। इसके लिए आखिर किसे दोषी माना जाए, आम आदमी तो इसके लिए दोषी नहीं है ना?
डॉ. महेश परिमल

शनिवार, 21 फ़रवरी 2009

इस परीक्षा में क्या खाएँ, क्या पीएँ


डॉ. महेश परिमल
एक तरफ मौसम परिवर्तन के साथ होती गरमी की दस्तक और दूसरी तरफ परीक्षा का तनाव दोनों ही बच्चों को अपने शिकंजे में जकड़ने को तैयार होते हैं। परीक्षा की शुरुआत होते ही बच्चोें पर मानसिक तनाव इतना अधिक बढ़ जाता है कि कई मासूम तो भय के कारण ही बीमार हो जाते हैं। विद्यार्थयों के लिए परीक्षा के पहले का सप्ताह मानसिक और शारीरिक स्वस्थता की दृष्टि से अधिक महत्वपूर्ण होता है। इस समय न केवल पढ़ाई की ओर अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है, अपितु पूरी नींद और पोषणयुक्त आहार भी उनके लिए बेहद जरूरी है।
परीक्षा के दिनों में किए गए भोजन का प‎‎्रभाव शरीर और दिमाग दोनों पर शीघ्रता से पड़ता है। इसलिए पालकों को बच्चों के खान-पान पर विशेष ध्यान देना चाहिए। विद्यार्थी-वर्ग त्वरित भूख शांत करने के लिए फास्टफुड और तेल से बनी वस्तुओं को अधिक महत्व देते हैं। परिणाम स्वरूप डायरिया, डीहाइड ्रेशन, एसीडिटी, तलुओं में जलन, घबराहट जैसी बीमारियों के शिकार हो सकते हैं।
अधिक मेहनत करने वाले विद्यार्थी परीक्षा के दिनों में देर रात तक जागकर पढ़ाई करते हैं और सुबह परीक्षा देने के लिए जाते समय भूखे पेट ही घर से निकल जाना उचित समझते हैं, जबकि भूखे पेट मानसिक श्रम करना बीमारी को आमंत्रित करता है। कभी-कभी भूख के कारण ब्लडप
्रेशर घट या बढ़ जाता है, हाथ-पैर काँपने लगते हैं, शरीर पसीना-पसीना हो जाता है। यह एक स्वाभाविक प्रक्रिया है, क्योंकि भूखे रहने पर शरीर में शर्करा की कमी हो जाती है जिससे मस्तिष्क को शर्करारूपी ईंधन न मिल पाने के कारण उसकी कार्यक्षमता धीमी पड़ जाती है। मानसिक तनाव और रात्रि जागरण का प्रभाव पाचन कि्रया पर पड़ता है और पेट की गड़बड़ अनेक रोगों को जन्म देती है।
कई माता-पिता परीक्षा के दौरान बच्चों के स्वास्थ्य के प्रति अधिक सजगता बरतते हुए उन्हें बाजार के जूस, फलों का रस, मिल्कशेक, गन्ने का रस, लस्सी, फलूदा आदि देते हैं। वे इन्हें बाजार से खरीदकर फि्रा में रख देते हैं और रात्रि में पढ़ाई करते समय बच्चों के हाथ में थमा देते हैं। बाजार में मिलने वाली इन चीजों में फुड पॉइानिंग का खतरा अधिक रहता है। इसलिए बच्चोें को ताजे फलों का रस दिया जाना चाहिए। वैसे भी फलों का सेवन किसी भी समय किया जा सकता है। फलों में प्रचुर मात्रा में फाईबर होने के कारण ये पाचन तंत्र को सबल बनाता है साथ ही इसमें उपस्थित शर्करा की मात्रा मस्तिष्क की कार्यक्षमता को भी विकसित करती है।

परीक्षा के समय भारी एवं देर से पचने वाला भोजन लेने से आलस और नींद घेर लेती है। अत: विद्यार्थीयों को चाहिए कि वे परीक्षा के दिनों में हल्का नाश्ता लें साथ ही दोपहर और रात्रि के भोजन में सादा एवं सुपाच्य भोजन लें। कई विद्यार्थी मानसिक तनाव के कारण ठीक से भोजन नहीं कर पाते और भूखे रहते हैं साथ ही रात में देर तक जागने के लिए चाय या कॉफी का सहारा लेते हैं। ऐसा करने से उनकी कार्यक्षमता प्रभावित होती है। कमजोरी महसूस होती है और पढ़ाई के प्रति अनिच्छा की भावना आती है। भोजन के प्र्रति अरूचि दर्शाने वाले बच्चों के माता-पिता को उनके स्वास्थ्य पर अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है। माँ को चाहिए कि वे इन्हें फलो का ताजा रस या फल, दूध से बनी वस्तुएँ अधिक मात्रा में दें, जिससे उनके शरीर में शर्करा और ग्लूकाो की मात्रा बराबर बनी रहे। दूध से बनी वस्तुएँ पाचन में हल्की और स्फूर्तिदायक होती हैं। इनसे खट्टी डकारें आना जैसी तकलीफ दूर होती है।
रात-दिन एक कमरे में कैद होकर केवल पढ़ाई पर ही ध्यान देने वाले बच्चों के लिए यह आवश्यक है कि वे भोजन के समय सभी के साथ मिल बैठ कर भोजन करें। साथ मिलकर भोजन करने से मानसिक तनाव कम होता है और कुछ समय की ताजगी अध्ययन के लिए दोगुना उत्साह भर देती है। उन क्षणों में माता-पिता को भी चाहिए कि वे उनसे पढ़ाई संबंधी कोई बात न करें और बातचीत के द्वारा वातावरण को हल्का बनाए जिससे विद्यार्थी ताजगी का अनुभव करे।
सुबह परीक्षा देने जाते समय हल्के नाश्ते के रूप में फ्रूट-सलाद, दूध से बनी सामग्री जैसे खीर, दहीं-चपाती, साबुदाने की खीर, फलों का रस, ग्लूकाो वाले बिस्किट, नारियल का पानी आदि दिया जा सकता है। इनका सेवन करने से रात्रि जागरण के कारण होने वाले पित्त के प्रकोप से छुटकारा मिलता है। कभी-कभी ग्लूकाो की कमी के कारण परीक्षा हॉल में मस्तिष्क काम करना बंद कर देता है। एकदम से किसी प्रश् का उत्तर याद नहीं आता और घबराहट के कारण शरीर पसीने से भीग जाता है, ऐसे में विद्यार्थी को अपने पास नमक और ग्लूकाो का पानी, नीबूं का शरबत, नारंगी या संतरे का जूस रखना चाहिए। एक-दों घूंट की मात्रा में इनका सेवन करने से मानसिक तनाव पल भर में ही दूर हो जात है।
आज अभिभावक और माता-पिता बच्चों की परीक्षा को लेकर उनसे भी अधिक सजग हैं और अपना कर्तव्य अच्छी तरह समझते हुए उसे निभाने का पूरा प‎‎्रयास करते हैं। इसी प्रयास में वे जाने-अनजाने उन्हें अधिक नंबर या प्रतिशत लाने के लिए दबाव बनाते हैं, जो कि गलत है। परीक्षा के दौरान विद्यार्थी को माता-पिता के स्नेह और प्रोत्साहन की आवश्यकता होती है। अध्ययन के प्रति बार-बार की रोक-टोक और अधिक नंबर लाने का दबाव उन्हें मानसिक रूप से पीड़ा पहुँचाता है। पहले से ही परीक्षा को लेकर भय से घिरे विद्यार्थी माता-पिता के दबाव के कारण अधिक भयभीत हो जाते हैं और मानसिक संतुलन खो बैठते हैं। अत: माता-पिता को चाहिए कि वे परीक्षा के दिनों में केवल उनकी शारीरिक स्वस्थता की अधिक चिंता करें और उन्हें मानसिक रूप से स्वस्थ होने में सहयोग प्रदान करें।
डॉ. महेश परिमल

शुक्रवार, 20 फ़रवरी 2009

क्या होता है रिसोर्ट का सच?



डॉ. महेश परिमल
सोमवार से शुक्रवार तक भाग-दौड़, ऑफिस आना-जाना, शरीर को थका देने वाला काम, बॉस की डाँट, घर लौटो, तो बच्चों का शोर, पत्नी की फरमाइशें, फिर ऑफिस का काम, तनाव.. तनाव..और केवल तनाव..। आखिर क्या करें? क्यों न इस बार वीक-एंड में शहर से दूर किसी रिसोर्ट में जाकर फ्रेश हो लें? कई साथी तो जाते ही हैं। वहाँ न तो परिवार की झंझट होगी, न शोर होगा, न बॉस होंगे, न ही होगी, पत्नी की फरमाइशें। वहाँ तो होगी, मस्ती.. मस्ती.. और केवल मस्ती..। तो इस बार चले ही चलें किसी रिसोर्ट में वीक-एंड मनाने।
अहा! माा आ गया। तबियत तर हो गई। सारा तनाव ही दूर हो गया। अब पूरी चुस्ती और स्फूर्ति के साथ काम होगा। कोई तनाव भी नहीं होगा। अब तो महीने में एक बार रिसोर्ट हो ही आया जाए, तो जिंदगी ही सँवर जाए। हमारे आसपास इस मानसिकता के कई लोग है, जो ऐसा सोचते हैं कि वीक-एंड में किसी रिसोर्ट में जाकर खुद को रिफे्रश करते हैं। खर्च तो काफी हो जाता है, पर मन की शांति के लिए उन्हें यह खर्च करना अखरता नहीं है। आखिर कमा ही किसलिए रहे हैं। अभी खर्च नहीं करेंगे, तो फिर कब करेंगे? यह एक सुखद चित्र हो सकता है, समाज के सभ्रांत लोगों का। पर बहुत ही खतरनाक है रिसोर्ट का सच! आप जानना चाहेंगे, क्या होता है यह रिसोर्ट का सच? तो आइए जान ही लेते हैं, हमारे आसपास सँवरती एक नई जिंदगी का सच। जो दिखने में तो बहुत ही खूबसूरत लगती है, पर है बहुत ही भयावह और खतरनाक।
आज शहरी जिंदगी एकदम उबाऊ और तनावभरी हो गई है। यहाँ न तो शुद्ध हवा है, न ही शुद्ध पानी। ट्राफिक जाम, वाहनों का शोरगुल, धुऑं और घुटन, यह सब इंसान को इतना अधिक थका देता है कि वह वीक-एंड में किसी रिसोर्ट जाकर फ्रेश होना चाहता है। इस रिसोर्ट में प्रकृति के सान्निध्य सात्विक आनंद प्राप्त करने के बदले वह एक अलग ही प्रकार के प्रदूषण का शिकार हो जाता है। आज बड़े शहरों से लगे गाँवों में विलेज रिसोर्ट, वॉटर पार्क और कंट्री क्लब की कतारें लगी हुई हैं। लोगों को लुभाने के लिए यह भी एक बिजनेस ही है, जो एक प्राकृतिक सौंदर्य के नाम से लोगों को लूट रहा है, आश्चर्य की बात यह है कि लोगों को लुटने में मजा आ रहा है। इसलिए यह धंधा चल निकला है।
वैसे तो शहर के आसपास बहुत से नदी-नाले, तालाब एवं वृक्षों से आच्छादित स्थान होते हैं, पर इंसान वहाँ नहीं जाना चाहता, आखिर क्यों? इन स्थानों पर प्रकृति तो बाहें पसारे आपके स्वागत के लिए तैयार है, पर आपको वह सुविधाएँ नहीं मिल सकती, जो रिसोर्ट में मिलती है। प्रकृति की गोद में तो केवल भीतर का आनंद प्राप्त किया जा सकता है। पर रिसोर्ट में तो वह सब-कुछ खुले रूप में मिलेगा, जिसे अब तक संकोच के साथ प्राप्त किया जाता रहा है। एक मुक्त आसमान मिल जाता है, रिसोर्ट में। जहाँ हर तरह की सुख-सुविधा आपका इंतजार करती है। बस लुटते जाओ और लुटते जाओ। पूरा रिसोर्ट ही लूटने को तैयार है। किसी रिसोर्ट की एंट्री फीस ही होती है 150 से 350 रुपए प्रति व्यक्ति। आपने यहाँ प्रवेश तो कर लिया। अब यदि आपको पानी भी पीना है, तो यहाँ से खरीदकर ही पी पाएँगे। कदम-कदम पर आप जेब खाली करते रहें, और मजे लूटते रहें। स्वीमिंग पुल में प्रवेश का अलग शुल्क, वहाँ की कास्टयूम का अलग से किराया, मनोरंजन के लिए वहाँ उपलब्ध राइड्स का शुल्क अलग, कोल्डड्रिंक्स, आइसक्रीम के लिए अलग से खर्च करना होगा। यदि आप घर का बना खाना वहाँ खाना चाहें, तो इसकी मनाही है। जानते हैं आप कि नदी या तालाब किनारे की यह जमीन गाँव के भोले-भाले लोगोें से औने-पौने दामों में खरीदी गई इस जमीन पर कई पेड़ों को काटकर कुछ को बचाकर यह रिसोर्ट बनाया गया है। जहाँ शहर के लोग बूँद-बँद पानी के लिए तरस रहे हों, वहाँ कई गैलन पानी केवल स्वीमिंग पूल के नाम पर ही बहा दिया जाता है। अब आते हैं यहाँ के मुक्त वातावरण में।

वह देखिए, वे बुजुर्ग घंटों से पानी में ही पड़े हुए हैं। घर में ये भले ही धोती-कुरता ही पहनते हों, पर यहाँ तो केवल एक जांघिए में ही पानी में पडे हुए हैं, आपने देखा, उनकी नजरों को। बाजू में ही मछली की तरह तैरती उस युवती को वे किस तरह से निहार रहे हैं। है कोई लाज-शरम, घर में बच्चों के लिए लोरी और कहानियाँ सुनाने वाली दादी भी यहाँ गाऊन में किस तरह से घूम रही हैं। कुछ बुजुर्ग होते युवाओं ने तो अपनी अलग ही दुनिया बसा ली है। सप्ताह भले ही शाकाहारी भोजन और पूजा-पाठ में ही बीतता हो, पर यहाँ तो शाकाहारी नहीं चलेगा, थोड़ी-सी के नाम पर पूरी बोतल खाली करने वाले कई मिल जाएँगे। आखिर यहाँ इसकी भी पूरी छूट है। पूरा परिदृश्य ही बदला हुआ है। सब मस्ती में हैं। जीवन का सच्चा आनंद बटोर रहे हैं। पर शायद उन्हें नहीं मालूम कि स्वीमिंग पूल का पानी साफ करने वाला फिल्टर प्लांट कई दिनों से बंद पड़ा है। लोग सीधे स्वीमिंग पूल में कूद रहे हैं। इस दौरान उनके शरीर का पूरा मैल पूल में ही फैल रहा है। ऐसा केवल कुछ लोग ही नहीं, बल्कि अधिकांश लोग कर रहे हैं। पूरा गंदा पानी कई लोगों को बीमारी के लिए आमंत्रित कर रहा है। आप शाकाहारी भोजन लेना भी चाहें, तो वह नहीं मिलेगा। क्योंकि यहाँ दोनों का किचन एक ही है। फिर चम्मच, कलछी या फिर गंज तो एक-दूसरे के लिए बेखौफ इस्तेमाल में लाए जा रहे हैं।
उधर देखा, किस तरह से आज के युवा फूहड़ ऍंगरेजी गीतों पर बेहूदा डांस कर रहे हैं? कितना शोर है वहाँ। क्या आप इसी शोर से बचने के लिए यहाँ आए थे, तो फिर सँभालो अपने आप को इस शोर से। कृत्रिमता जगह-जगह पर दिखाई देती है। आप धन खर्च करें, तो आपके लिए कृत्रिम बारिश भी करवा दी जाएगी, जहाँ आप रेन डांस भी कर सकते हैं। एंट्री फीस के साथ भोजन और नाश्ता ही दिया जा रहा है। इतना तो 50- 100 रुपए में ही हो जाता है। बाकी तो आपसे प्रकृति के सौंदर्य के नाम पर लूटा जा रहा है।
प्रकृति के नाम पर न तो यहाँ पक्षियों का शोर है, न ताजा हवा, न एकांत, न पत्तों की सरसराहट, न चिड़ियों का कलरव, न लहरों का संगीत ऐसा कुछ भी तो नहीं है यहाँ, जिसे हम प्रकृति कहते हैं। रिसोर्ट में आपको मुक्त और उदात्त जीवन देखने को मिला। लोगों का खुलापन देखने को मिला। नकली हँसी और ऑंखों को भले लगने वाले कुछ दृश्य देखने को मिले, तो क्या इसी से हम यह मान लें कि हमने प्रकृति की गोद में समा गए? चार-पाँच सदस्यों के एक परिवार का खर्च यहाँ 3 हजार रुपए होना तो साधारण सी बात है। यहाँ आने के बाद लोग बेवजह खिलखिलाने की कोशिश करते हैं। साथ ही इस बात का दावा करते हैं कि वे पूरी तरह से रिलेक्स हो गए हैं। लेकिन क्या केवल एक-दो दिन की मौज मस्ती से जीवन की समस्याओं का हल संभव है? रिसोर्ट से बाहर आकर घर पहुँचते ही वापस उन्हीं समस्याओं का सामना करना पड़ता है। समस्याओं से भागना अपने आप को धोखा देना है। शहरी जीवन के प्रदूषण से अलग होने के लिए दूसरे प्रदूषण से घिरना कहाँ की समझदारी है?
डॉ. महेश परिमल

गुरुवार, 19 फ़रवरी 2009

मान्यताओं, धारणाओं को झुठलाने की साजिश


डॉ. महेश परिमल
क्या आपने यह महसूस किया कि आजकल कई रेल्वे स्टेशनों में ऐसी मशीनें लग गई हैं, जो इंसान का वजन नापने के अलावा यह भी बताती हैं कि किस ऊँचाई के व्यक्ति का वजन कितना होना चाहिए। उसके टेबल में यदि जरा भी हेर-फेर है, तो यह चिंता की बात है। ठीक ऐसा उस समय भी होता है,जब अस्पताल में डिलीवरी के बाद यह कहा जाता है कि बच्चे की हाइट के अनुसार उसका वजन कम है, अतएव आप उसे इस तरह की अतिरिक्त खुराक दें। यानी अब तक जो यह कहा जा रहा था कि छह माह तक बच्चे के लिए माँ का दूध ही सर्वोपरि है। इस धारणा को एक साजिश के तहत झुठलाने की कोशिश की जा रही है। इसमें अनजाने में विश्व स्वास्थ्य संगठन भी जुड़ा हुआ है। आशय यही कि अब वह भी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हाथों की कठपुतली बनकर रह गया है।
40 वर्ष पहले विश्व स्वास्थ्य संगठन ने एक चार्ट तैयार किया था। जिसमें यह बताने की कोशिश की गई थी कि बच्चे की ऊँचाई, वजन और उम्र का रेशो क्या होना चाहिए। इस चार्ट के आधार पर विश्व के 40 देशों की माताएँ अपने बच्चों को अतिरिक्त खुराक के रूप में बहुराष्ट्रीय कंपनियों के उत्पाद बेबी फूड के रूप में देती आ रही हैं। अब विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कहा है कि उक्त चार्ट में कुछ खामियाँ रह गई हैं। सोचो, कितना बड़ा धोखा पिछले चालीस वर्षों से विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा किया जा रहा था। इसके कारण न जाने कितनी माताओं ने अपने बच्चों को अतिरिक्त खुराक दी और बच्चों के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ किया। पिछले चालीस वर्षों से हो रहे इस घालमेल की जानकारी अभी तक बहुत ही कम लोगों को है। इस तरह से विश्व स्वास्थ्य संगठन ने बहुराष्ट्रीय कंपनियों के बेबी फूड के प्रचार-प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की।
इस मिलीभगत से न जाने कितने मासूमों की अतिरिक्त खुराक के कारण जीवनलीला ही समाप्त हो गई। इसके कारण यह मान्यता भी झूठी साबित हो गई कि छह माह तक बच्चे के लिए माँ का दूध ही सब-कुछ है। बेबी फूड के कारण न जाने कितनी माताओं ने आधुनिक बनने के चक्कर में शिशु को स्तनपान कराना ही बंद कर दिया। बच्चे बेबी फूड के सहारे ही बड़े होने लगे। इसका असर बच्चों के स्वास्थ्य पर पड़ा। अपनी सफाई में विश्व स्वास्थ्य संगठन का कहना है कि 'पेडियाट्रिक ग्रोथ चार्ट' के नाम से जाने जाने वाले इस चार्ट को तैयार करने के लिए अमेरिका के बच्चों की उम्र और वजन का इस्तेमाल प्रामाणिकता के रूप में किया गया। गलती यही हो गई। अमेरिका के बच्चे वैसे भी बेबी फूड के सहारे बड़े होते हैं, इसलिए उनका वजन बढ़ना स्वाभाविक है। अमेरिका के शिशुओं के हिसाब से तैयार चार्ट तो भारत या अन्य विकासशील देशों के शिशुओं पर लागू नहीं किया जा सकता। लेकिन विकासशील देशों की माताओं ने अपने आप को आधुनिक बताने के लिए अपने बच्चों के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ किया।
बेबी फूड से बच्चे मोटे होते हैं और भविष्य में हृदय रोग के शिकार हो सकते हैं। इसकी जानकारी पूरे चालीस साल तक विश्व स्वास्थ्य संगठन को न हो, यह बात गले नहीं उतरती। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद हम इतने खुश हो गए कि हमें देश की स्वास्थ्य नीतियाँ बनाने का खयाल ही नहीं रहा। हम तो विश्व स्वास्थ्य संगठन ने जो कहा, उसे कर दिखाने के लिए तैयार रहे। तमाम देशों की सरकारों द्वारा स्वास्थ्य को लेकर जो आंदोलन चलाकर अरबों रुपए खर्च किए जा रहे हैं, वे विश्व स्वास्थ्य संगठन के सुझावों को देखते हुए किए जा रहे हैं। अब हमें सचेत हो जाना चाहिए कि विश्व स्वास्थ्य संगठन जिस तरह से हमें मलेरिया, फाइलेरिया, टीबी, एड्स, पोलियो, डायबिटीस, हृदय रोग, कुष्ठ रोग, डेंगू आदि रोगों से लड़ने के लिए जो सुझाव देता है, उसमें बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियों के उत्पाद को बढ़ावा देने की योजना होती है।
इन दिनों हमारे देश में पल्स पोलियो और एड्स को लेकर जागरूकता का अभियान चलाया जा रहा है। इस दिशा में पुनर्मूल्यांकन की आवश्यकता है। इसकी जाँच में यदि यह पाया जाता है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन के कहने पर हमारे देश के बच्चों के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ किया गया है, तो हमें बहुराष्ट्रीय कंपनियों के उत्पादों का बहिष्कार करना चाहिए। इसके लिए एक स्वदेशी विशेषज्ञों की समिति बनाई जानी चाहिए। आयोडिनयुक्त नमक के मामले में भी कुछ ऐसा ही हो रहा है। नमक में आयोडिन का होना आवश्यक बताकर नमक जैसी अतिआवश्यक चीज को भी महँगा कर दिया गया। इसका पूरा लाभ उद्योगों को ही मिला है। परिवार नियोजन का नारा देकर जो दवाएँ विदेशों से हमारे देश में आ रही हैं, वे भी कम खतरनाक नहीं हैं। लेकिन स्वास्थ्य पर कोई स्पष्ट नीति न होने के कारण भारत समेट कई देश बहुराष्ट्रीय कंपनियों के गुलाम बनकर रह गए हैं।
हमारे देश में हर वर्ष करीब 20 हजार करोड़ रुपए की एलोपैथिक दवाओं का विक्रय होता है। इसमें से अधिकांश दवाएँ अनावश्यक और हानिकारक हैं, जो हमारे विश्वासपात्र डॉक्टर द्वारा लिखी जाती है। इन दवाओं की बिक्री से देशी और विदेशी कंपनियाँ बेशुमार दौलत इकट्ठा कर रही हैं। अनजाने में हमारा विश्व प्रसिद्ध आयुर्वेर्दिक ज्ञान अपनी जन्मभूमि भारत में ही पिछड़ता जा रहा है। जबकि विदेशों में इसका बोलबाला है। आयुर्वेद को पीछे करने की एक साजिश बरसों से बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा की जा रही है और हम उसके चंगुल में फँसते जा रहे हैं। बेहतर होगा कि समय रहते हम सचेत हो जाएँ, नहीं तो हो सकता है कि गुलामी हमारी मस्तिष्क के बाद अब शरीर पर ही हावी हो जाए।
डॉ. महेश परिमल

मंगलवार, 17 फ़रवरी 2009

कुछ तो करना होगा नेपाल का



नीरज नैयर
नेपाल में माओवादी सरकार के गठन के वक्त जैसी आशंकाएं जताई जा रही थीं वो अब सही साबित होती जा रही हैं. नेपाली नेताओं के भाषण और उनकी कार्यशैली में भारत विरोधी अभियान की झलक नजर आने लगी है. माओवादी सरकार के बाशिंदे न केवल भारत के प्रति आलोचनात्मक रवैया अपनाए हुए हैं बल्कि आम जनता में उसके खिलाफ व्यापक माहौल भी तैयार कर रहे हैं. पशुपतिनाथ मंदिर विवाद इसका सबसे ताजा उदाहरण हैं. दशकों से काठमांडू स्थिति इस मंदिर में भारतीय पुजारी पूजा अर्चना करते आए हैं लेकिन नेपाली प्रधानमंत्री प्रचंड ने इस परंपरा को तोड़ने की कोशिश की. प्रचंड की चाहत थी कि मंदिर में नेपाली पुजारियों को ही पूजा करने का अधिकार मिले. हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने भारतीय मूल के पुजारियों की बर्खास्तगी को अवैध करार देते हुए उनके निर्णय को खारिज कर दिया. माओवादियों को कोर्ट का फैसला रास नहीं आ रहा है. प्रचंड के बयानों में हमेशा से ही भारत के खिलाफ नफरत दिखाई देती रही है. प्रधानमंत्री बनने के बाद जिस लहजे में उन्होंने संधियों की पुर्नसमीक्षा की बात कही थी उसी से साफ हो गया था कि उनकी मंशा भारत के साथ दोस्त से ज्यादा दुश्मन की तरह पेश आने की है.माओवादियों का झुकाव भारत की अपेक्षा चीन की तरफ अधिक रहा है.
वो शुरू से ही यह कहते आ रहे हैं कि नेपाल की गरीबी का मुख्य कारण भारत है. माओवादी संगठन भारत को नेपाल के पिछडेपन का कारण मानते हैं. पद संभालने के बाद प्रचंड ने अपनी पहली आधिकारिक यात्रा की शुरूआत चीन से की. वो पहले चीन गये उसके बाद भारत आए. जब नेपाल में माओवादी सत्ता संघर्ष में शामिल थे उस वक्त चीन उनको भरपूर सहयोग मिला. चीन माओवादियों के हर अभियान में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से सम्मलित रहा. इस लिहाज से अब वो नेपाल के ज्यादा करीब पहुंच गया है. उसकी योजना नेपाल तक रेल लाइन बिछाने की है. ठीक ऐसी ही शुरूआत उसने तिब्बत के साथ भी की थी और आज तिब्बती पूरी तरह से उसके गुलाम बनकर रह गये हैं. जिसका खामियाजा भारत को भी चुकाना पड़ रहा है. 1950 के दौर में भारत-तिब्बत सीमा पर भारत के महज चंद सैनिक की तैनात हुआ करते थे लेकिन आज वहां सुरक्षा के लिए प्रतिदिन भारी-भरकम रकम खर्च की जा रही है. हालांकि नेपाल की ऐसी कोई बिसात नहीं है कि उसकी ढेड़ी नजर हमारे लिए घातक साबित हो सकती है लेकिन पर्दे के पीछे से उसकी कारगुजारी काफी हद तक हमें प्रभावित कर सकती है. बीते दिनों बिहार में बरपे कोसी के कहर को हल्के में नहीं लिया जा सकता. कहा जा रहा है कि चीन के इशारे पर ही नेपाल कोसी की विकरालता का रुख भारत की तरफ मोड़ दिया. इससे पहले भी बिहार में बाढ़ आई हैं मगर इस बार तबाही का मंजर कुछ ज्यादा ही भयानक था. अभी हाल ही में माओवादी सरकार के एक मंत्री ने सार्वजनिक तौर पर भारत के खिलाफ जिस तरह की भाषाशैली का प्रयोग किया था वो चीन के प्रति उनकी निर्भरता को प्रदर्शित करने के लिए काफी है. वैसे नेपाल का चीन के प्रति लगाव कोई नई बात नहीं है, लेकिन इतना जरूर कहा जा सकता है कि प्रचंड के सत्ता संभालने के बाद उस लगाव में झुकाव अत्याधिक रूप से बढ़ रहा है. राजा महेंद्र के कार्यकाल के दौरान ही नेपाल ने भारत पर से अपनी निर्भरता खत्म कर चीन से अपने संबंधों की पहल शुरू कर दी थी. 1955 में संयुक्त राष्ट्र संगठन की सदस्यता मिलने के बाद उसने भारत की निर्भरता से निकलने के लिए हाथ-पांव मारना तेज कर दिया. नतीजतन 1956 में चीन के साथ उसने एक महत्वपूर्ण समझौते पर हस्ताक्षर किए. इसके बाद 1961 में नेपाल नरेश ने चीन के साथ सीमा समझौता करके चीन के प्रति नजदीकी का आधिकारिक ऐलान कर दिया. इसके पीछे चीन की मंशा नेपाल से भारत की छवि को पूरी तरह मिटाना था. 1962 में भारत से युध्द के बाद चीन ने नेपाल को खास तवाो देना शुरू कर दिया. सामिरक तौर पर उसे नेपाल भारत को कमजोर करने के हथियार के रूप में दिखाई देने लगा. आज मुंबई हमले के बाद जिस तरह से चीन पाकिस्तान के साथ खड़ा दिखाई दे रहा है ठीक वैसी ही नीति उसने नेपाल को लेकर अपनाई थी, 1962 के दौर में उसके विदेशमंत्री ने कहा था, नेपाल कई साल से विदेशी आक्रमणकारियों से लड़ता रहा है इसलिए हम नेपाल के राजा को आश्वस्त करना चाहते हैं कि भविष्य में नेपाल पर किसी तरह के विदेशी आक्रमण की स्थिति में चीन सदैव नेपाल के साथ खड़ा होगा. उनका इशारा भारत की तरफ था. 1988 में नेपाल ने बडे पैमाने पर चीन से हथियार खरीदे. यह खरीदारी एक तरह से पूर्व में की गई संधियों के खिलाफ थी. उन संधियों में कहा गया था कि नेपाल अगर अन्य देशों से हथियारों की खरीदेगा तो उसे भारत की स्वीकृति लेनी होगी. बावजूद इसके नेपाल भारत के लिए कभी इतना खतरनाक साबित नहीं हुआ जितना अब होता दिखाई दे रहा है. चीन की पहुंच पाकिस्तान, बर्मा, श्रीलंका आदि देशों तक पहले ही हो गई थी अब उसने नेपाल को भी पूरी तरह से अपने प्रभुत्व में ले लिया है. वो नेपाल के रास्ते हमारे सीने पर सवार होने की रणनीति बना रहा है. सामरिक दृष्टि से नेपाल पर चीन की पकड़ भारत के लिए चिंता का विषय बन गया है. अगर चीन नेपाल को तिब्बत की तरह हजम करने में कामयाब रहा तो फिर उसे रोकना मुश्किल हो जाएगा. लिहाजा इस संभावित खतरे को ध्यान में रखते हुए सरकार को कुछ न कुछ तो करना होगा. ऐसी दीर्घकालीन नीतियां बनानी होगी जिससे नेपाल भारत के साए में अपने को महफूज समझे और चीन से बढ़ती उसकी नजदीकियों पर अंकुश लग सके.
नीरज नैयर

सोमवार, 16 फ़रवरी 2009

ग्राम विकास ही सच्चा विकास


अलांगो रंगास्वामी ने शहर की तरफ पलायन और गरीबी दूर करने का उपाय बताया हैमल्लिका साराभाई
भले ही इसे आधुनिक कहा जाए, पर बात है यह नीति, मूल्यों और मानवता के विकास की।
चेन्नई से दक्षिण में 75 कि.मी. दूर एक गांव है कुथाम्बकम। एक दशक पहले तक यह गांव एकदम अविकसित था। वहां चारों तरफ जातिवाद के झगड़े, गरीबी और शराबियों के ही दर्शन होते थे। इसी गांव के एक व्यक्ति ने गांधीजी के नियमों को अपनाकर इस गांव की कायाकल्प ही कर दी।
दलित परिवार में जन्म लेने वाले अलांगो रंगास्वामी का जीवन इन्हीं झगड़ालू, छुआछूत से भरे वातावरण के बीच ही बीता। मानवता के कोई लक्षण यहां नहीं दिखते थे। जहां यह व्यक्ति रहता था, वहां पुरुष, स्त्रियों से मारपीट करते रहते। दूसरी ओर उच्च वर्ग के लोग दलितों पर अत्याचार करते। इस गांव में रहने वाले अधिकांश लोग अनपढ़ और शराबी थे। इन हालात में भी अलांगों ने मन लगाकर शिक्षा प्राप्त की। हाईस्कूल पास कर इंजीनियरिंग कॉलेज में जाने वाला अलांगो पहला दलित बना। तेजस्वी और मेधावी होने के कारण ग्रेजुएशन के तुरंत बाद उसे अच्छे वेतन की नौकरी भी मिल गई। इसे नौकरी को स्वीकारने के पहले उसने सोचा कि एक बार अपने परिवार से मिल लिया जाए। फिर भी मिलने में 5 वर्ष लग गए। 5 वर्ष बाद जब वह अपने गांव पहुंचा, तब वहां की स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया था। सभी कुछ पहले जैसा ही था। यह स्थिति देखकर उसे आघात लगा। उसने सोचा कि यदि मैं अपनी शिक्षा का उपयोग अपनों के लिए नहीं करता, तो लानत है मुझ पर। यदि मेरी शिक्षा से गांव वालों का विकास नहीं होता, तो मेरी शिक्षा व्यर्थ है।
ग्रामीणों के उत्कर्ष का सपना आंखों में पालकर अलांगो ने सबसे पहले गांव की गरीबी के कारण को समझने की कोशिश की। देश के अन्य गांवों की तरह यहां भी किसान और मजदूर रहते थे। ये लोग खेतों में अनाज तो बोते, पर केवल अपनी ही पूर्ति के लिए। अलांगों ने अपनी शिक्षा का उपयोग कर अपने ही नहीं, बल्कि आसपास के गांवों का बारीकी से अध्ययन किया। इसमें उसने पाया कि इस क्षेत्र के लोग अपनी जरूरतों की छोटी-बड़ी चीजें खरीदने में ही 60 लाख रुपए खर्च कर देते हैं। यहां की गरीबी का मुख्य कारण भी यही था। उसने सोचा कि अब इन ग्रामीणों को सही दिशा किस तरह से दी जाए, ताकि गरीबी से छुटकारा मिल सके। इसके बाद रंगास्वामी सबसे पहले तो गांव के सरपंच बने। इसके बाद गांव-गांव में विभिन्न सभाओं का आयोजन कर लोगों को आदर्श गांव की कल्पना के संबंध में बताया। इन्हें समझाते हुए रंगास्वामी ने कहा 'यदि आप सभी सहयोग दें, तो हर गांव में अलग-अलग समूह बनाकर छोटी-बड़ी वस्तुओं का उत्पादन किया जा सकता है। इन उत्पादित वस्तुओं की बिक्री गांव में ही की जाएगी।'
अलांगों की मुश्किलभरे दिन अब शुरू हुए। पहले तो ग्रामीणों को उनकी बातें रहस्यपूर्ण लगी। भला ऐसे कैसे हो सकता है? यही प्रश्न सभी के दिमाग में था। पर अलांगो ने जो ठान लिया था, उसके लिए वे पूरी तरह से समर्पित थे। अंतत: उन्हें सफलता मिली। शुरुआत में इन समूहों ने मिलकर करीब 40 जीवनोपयोगी वस्तुओं का उत्पादन करने का निश्चय किया। इसके बाद गांव में अन्य कई सेवाएं शुरू की गई। इसमें दूध उत्पादन, अनाज, बुनकर, सिलाई काम और साबुन-डिटजर्ेंट का समावेश किया गया। इसके कुछ महीनों में परिश्रम का फल दिखने लगा। लोगों को यह समझ में आ गया कि उनके 60 लाख रुपए गांव में ही खर्च हो गए। अब तक उन्हें न जाने कितनी कार्पोरेट कंपनियों के उत्पाद उन्होंने खरीदे थे। इस प्रगति से गांव वालों का आत्मविश्वास बढ़ गया। वे दोगुने उत्साह से अपना काम करने लगे। दूसरी ओर गांव की सूरत बदलने वाले रंगास्वामी की ख्याति दूर-दूर तक फैलने लगी।
इसके बाद जब गांवों में नए मकान बनाने की बारी आई, तो रंगास्वामी ने समझाया कि लोग अब भेदभाव भूलकर एक दूसरे का सहयोग करें। सब साथ रहेेंगे, तो विकास तेज गति से होगा। कुछ समझाइश के बाद लोग मिलकर रहने को तैयार हो गए। नए विचारों के अनुसार मकान बने, जिसमें ब्राह्मण के बाजू में दलित जाति के लोगों का मकान बना। धीरे-धीरे गांवों की परिस्थितियां बदली, तो लोगों का दृष्टिकोण भी बदला। अब गांव के बच्चे स्कूल जाने लगे। शाला में भी बच्चों के साथ किसी तरह का भेदभाव नहीं होने के कारण शिक्षा बेहतर मिलने लगी। इस समृध्दि से एक नई बात सामने आई। अब गांव के युवाओं को लगने लगा कि शहर में उनके लिए नौकरी और मकान बनाने के अच्छे अवसर हैं, तो वे युवा शहर जाकर अपने पांव पर खड़े होने लगे।
अलांगों का मॉडल आज पूरे विश्व के विकासशील देशों में खास चर्चा में है। वजह साफ है, उन्होंने गांव से शहर की तरफ पलायन और गांव की गरीबी दूर करने का उपाय बताया है। कितने ही भ्रष्टाचारी अधिकारियों और गलत तरीके से धन कमाने का विरोध किए बिना यह परिवर्तन सहज नहीं था। यद्यपि अलांगो अपने क्षेत्र में लगातार विकास करते रहे।
कहावत है 'गांव का जोगी जोगड़ा, आन गांव का सिध्द' यह बात आज अलांगों के बारे में कही जा रही है। उसके मॉडल को कई विकासशील देश अपना रहे हैं, पर हमारे ही देश में उन्हें तरजीह नहीं दी जा रही है। भारत के 64 प्रतिशत गांवों की स्थिति आज ठीक नहीं कही जा सकती। वहां से लगातार पलायन हो रहा है। फलस्वरूप शहरों की हालत और भी अधिक खराब होती जा रही है। योजना आयोग और आईआईएम जैसी संस्थाओं के विद्यार्थी इन गांवों में जाकर गहराई से अध्ययन करें, तो वे भी देश के पिछड़े गांवों के विकास में मील का पत्थर साबित हो सकते हैं।
मल्लिका साराभाई प्रतिष्ठित अदाकारा और समाजसेवी हैं।

गुरुवार, 12 फ़रवरी 2009

आओ, अपने प्यार को अभिव्यक्ति दें



डॉ. महेश परिमल /भारती परिमल
आओ, प्यारी-प्यारी बातें करें। युवाओं की दीपावली यानी वेलेंटाइन डे। अपने प्रेम की अभिव्यक्ति करने का दिन। कई बार दिल की गहराइयों से शब्द फूटते हैं। कई बार शब्द साथ नहीं देते, उस वक्त जब इन शब्दों की विशेष आवश्यकता होती है। ऐसे ही क्षणों के लिए शब्दों का दिल से लिखने की कोशिश की है। ये मेरी ही नहीं, हम सबकी अभिव्यक्ति का माध्यम बन जाए, यही मेरा कामना है। इन शब्दों में से जिसे जो भी अच्छा लगे, वह अपने लिए प्रयोग में ले आए, तो हमेंे खुशी ही होगी।

वेलेंटाइन-डे

प्रिय, तुम्हारे नेह से भीगी बाती का दीया
आज भी मेरे हृदय में प्रकाशवान है।
स्नेह पुष्प रूपी पत्र उसकी लौ को
अकम्पित रखेंगे।
विश्वास है, तुम्हारा सहयोग बना रहेगा।

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तुम्हारी पलकों के पीछे छिपा
भावों का अथाह समन्दर
मुझे डूब जाने को प्रेरित करता है।
पागल हूँ, डूब कर भी डूबने की चाहत रखता हूँ।

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कल शाम, तुम्हारी पलकों से फिसल कर जो बूँद मेरे हृदय-सीप पर पड़ी, वह प्यार का मोती मेरे पास सुरक्षित है। अब तुम्हीं बताओ, तुम्हारे पास मेरी यादों का कुछ है?

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हमारे प्यार के फूलों की सुगंध
अब दूर-दूर तक फैलने लगी है।
चलो ऐसा करें, भावों के मन मंदिर में
उसे छुपा आएँ।

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मत पूछो कि क्यों उदास हूँ मैं
तुम खुद ही से सवाल करो
कि क्या तुम्हारे पास हूँ मैं?
ंगर ऑंखो में तुम्हारी जुदाई का अहसास है,
तो समझ लो कि क्यों उदास हूँ मैं।

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चलने को तो सभी कहते हैं,
पर दो कदम भी कोई साथ चलता नहीं।
रूलाती है यादें, तो रोता है दिल
यूँ तो कोई हँस के खुद को रूलाता नहीं।

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हम ऍंधेरे में थे, इसीलिए तो अकेले थे।
उजाले में आए, तो देखो हमारी परछाई
हमारे साथ है।
हमारा आज-कल का नहीं,
पल-पल का साथ है।
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तुम कल-कल करती नदिया सी
मेरे अंतर्मन में आई।
लहर-लहर लहरा कर
मेरे सूने जीवन में समाई।
कभी इठलाकर, कभी बलखाकर
जीवन की शाम सजाई।

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तुम्हारी हथेलियों से होकर
रेखाओं का जंगल
मेरी अंजुरी में सिमट गया है
इनसे झाँकता किस्मत का सूरज
निश्चय ही हमारा आने वाला कल होगा
इसी विश्वास के साथ ..........

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यादों के गाँव में
वादों का बांजार सजाकर
दो पल का बसेरा कर
पलकों में सपनों का काफिला समेटे
हम काफी दूर निकल जाएँगे।
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तुमने मुझे सिर्फ एक बार प्यार से देखा था। यह शायद मेरा भ्रम था, पर सच मानों इसी खूबसूरत भ्रम के सहारे मैं पूरी ंजिदगी गुजार लूँगा और तुमसे कुछ न कहूँगा।
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जब-जब तुम्हारे करीब आया हूँ, तुम्हारी ऑंखो से छलक ही पड़ा है मेरे लिए ढेर सारा प्यार ........। अब नहीं चाहिए, नहीं चाहिए मुझे यह छलकता हुआ प्यार। इसे अपनी ऑंखो में ही रहने दो। नहीं देख सकता मैं यह छलकता सागर...... जो कि हकींकत में खारे पानी के सिवा कुछ भी नहीं।
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मेरी हथेलियों में तुम्हारे लिए कोई लकीर नहीं है, यह मैं जानता हूँ, पर कल ही गर्म चाकू से मैंने हथेली पर एक नई लकीर बनाई है, यही है मेरे जीने का आधार........।

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तुम आई, एक नहीं, दो नहीं, पूरी 22 सीढ़ियाँ तय कर। आते ही झुका ली नजरें डाली की तरह और मैंने चूम लिया पत्ते-पत्ते को।
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उस दिन हवाओें से पूछना चाहा था तुम्हारे घर का रास्ता, मगर फूलों के पीछे तुम्हारी खिलखिलाती हँसी ने इरादा बदल दिया। एक फूल तोड़ कर चूमा और कमींज में टाँंक लिया।

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पागल था जो चाँद के पास के सितारे की ख्वाहिश रखता था। नहीं जानता था कि जमीं पर ही एक सितारा मेरे ंकरीब है, बहुत ंकरीब........। क्यों सच है ना?
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यह सच है कि तुम बिन जीवन उदास लगता है, पर यकींन मानो यह उदासी ही जब यादों की चादर तान लेती है, तो लमहा-लमहा रंगीन हो जाता है।
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मौत का कोई पल नहीं होता, वह तो कभी भी आ जाती है और अपने आगोश में ले लेती है, पर चाहत यही है कि ंजिदगी का संफर इन पलों को भी कुछ पल के लिए ओझल कर दें और हथेलियों की रेखाओं में वह लकीर खींच दे, जो जाते हुए लमहों को भी खुशगवार बना दे।

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डॉ. महेश परिमल/भारती परिमल

बुधवार, 11 फ़रवरी 2009

हिंसा का प्यारा समाधान



ये वेलेंटाइन डे क्या है? एक समस्या या उपाय!
दीपक सोलिया
विवेकानंद जी की प्रसिध्द उक्ति है कि यदि मुझे मुट्ठीभर युवा मिल जाएं, तो मैेंं देश की सूरत ही बदल दूं। युवाशक्ति के उपयोग की विवेकानंद जैसी (किंतु निगेटिव) स्मार्टनेस कई नेताओं के पास भी है। बंगाल की ममता बनर्जी ने कुछ जोशीले युवाओं के बल पर टाटा को बंगाल छोड़ने के लिए विवश कर दिया। विहिप-बजरंग दल के नेता भले ही प्रौढ़ या वृध्द हों, पर हाथ में नंगी तलवार लेकर घूमने वाले तो युवा ही हैं। बेंगलोर के पब में युवतियों को मारने वाले युवा ही थे। नक्सलियों की बेपनाह ताकत केवल युवाओं के कारण ही है। महाराष्ट्र में उत्तर प्रदेश-बिहार के लोगों को पीटने वाले तो युवा ही हैं। कर्नाटक में बेलगाम के मुद्दे पर कन्नड़भाषी युवाओं के तेवर देखने लायक हैं। मुंबई पर हमला करने वाला कसाब कितना युवा है, इसे बताने की आवश्यकता नहीं है।
इसमें नई बात नहीं है कि युवा शक्ति के बल पर ही प्रौढ़ और वृध्द अपना स्वार्थ सिध्द करते आए हैं। बात है सचेत होने की। विशेषकर जब विश्व में मंदी छाई हो, दूसरी ओर बेकारी, अन्याय और सांस्कृतिक बंधनों में जकड़े युवा, इन दोनों का कॉम्बिनेशन चिंताजनक है। मंदी के कारण होने वाली हड़ताल और प्रदर्शन का परचा फ्रांस, रशिया, और ब्रिटेन में देखने को मिल रहा है। इसके पहले 1930 की मंदी में ही यूरोप में फासीवाद का बिगुल बजा था। इन सबको देखते हुए भारत को इस बात के लिए सचेत होना होगा कि उग्रवाद, नक्सलवाद, प्रांतवाद, संस्कृतिवाद-भाषावाद आदि अनेक वादों की लड़ाई के लिए बेशुमार युवाशक्ति भारतभर में बिखरी पड़ी है। 'द फ्लेश ऑफ सिविलाइजेशन' में सेम्युअल हंटिंगटन ने लिखा है-भारत आज युवाओं का देश है। एक अनुमान के मुताबिक 2020 तक 15 से 30 तक की आयु वाले युवाओं की संख्या भारत में हर वर्ष एक से 2 प्रतिशत की दर से बढ़ती रहेगी।
इस अपार युवाशक्ति को सही दिशा देने के लिए एक प्रभावशाली नेतृत्व की आवश्यकता है। आज विवेकानंद या गांधी जैसे नेता हमारे पास नहीं है, तो फिर इस युवाशक्ति को सही दिशा आखिर किस तरह से मिले? इस दिशा में मुझे तो एक ही विचार आ रहा है, यह विचार थोड़ा हास्यास्पद लग सकता है। फिर भी बात निकली है, तो फिर बताने में क्या हर्ज? आज युवाओं को अंकुश में रख सकता है, तो वह वर्ग है युवतियों का! जी हाँ, युवतियों का। आप ही बताएं, एक जोशीला युवा शिक्षकों या घर के बुजुर्गों की बात भले ही न माने, पर उसकी सहपाठी, गर्लफ्रेंड या फिर पड़ोस में रहने वाली को युवती यदि उसे धीमे से कुछ कह दे, तो वह तुरंत ही उसे करने के लिए तैयार हो जाता है। युवाओं की शक्ति को विस्फोटक बनने से रोकने की शक्ति केवल युवतियों के पास ही है। लोहा ही लोहे को काटता है। शोले का संवाद याद है ना आपको, जिसमें गब्बर सिंह कहता है 'गब्बर से तुम्हें एक ही आदमी बचा सकता है, एक ही आदमी, खुद गब्बर।' इस तरह से यौवन पर अंकुश रखने के लिए एक ही शक्ति है, वह है स्वयं यौवन।
इसका सार यही है कि आजकल के युवक-युवतियों को अकारण ही परेशान न किया जाए। उन्हें ऐसा करने दो, उनकी दोस्ती और प्रेम को पनपने दो, बहुत से माता-पिता को यह चिंता होती है कि उनकी लड़की किसी झूठे व्यक्ति के प्रेम में पड़ गई तो? बहुत अच्छा, यदि आप ऐसा सोच रहे हैं, तो लड़कियों के तेज दिमाग और व्यक्ति को पहचानने की प्रतिभा को नजरअंदाज कर रहे हैं। माता-पिता तो पुराने जमाने की बात कर रहे हैं, उस समय तो युवक-युवती 15-20 वर्ष की आयु तक पहुंचते-पहुंचते विवाह के बंधन में बंध जाते थे। तो क्या पुरानी पीढ़ी ने जो विजातीय निकटता छोटी उम्र में प्राप्त कर ली थी, क्या उससे आज की पीढ़ी को वंचित रखा जाए? स्वयं तो प्रेम में नहीं पड़े, तो क्या दूसरों को प्रेम करने का अधिकार नहीं है? दूसरी ओर अश्लीलता और अनैतिकता के मामले में आज के कुँवारे युवाओं की अपेक्षा प्रौढ़ कितने आगे हैं, यह सभी जानते हैं।
यौवन यदि आगरा है, तो प्रेम ताजमहल है। इंसान यदि आगरा जाए और ताजमहल न देखे, तो फिर क्या देखा? यौवन आता है और चला भी जाता है। इस बीच यदि एक बार भी किसी से प्रेम नहीं हुआ, तो ऐसे कैसे चलेगा? इसलिए जिंदाबाद.... जिंदाबाद.... अय मुहब्बत जिंदाबाद। वो जवानी जवानी नहीं, जिसकी कोई कहानी नहीं। इस तरह की कहानी गढ़ने वाले प्रेमी युवक को आतंकवादी बनाना कोई सरल काम नहीं है। वह अपनी प्रेमिका को इतनी सहजता से छोड़ने के लिए तैयार नहीं होगा। स्वार्र्थी नेताओं के जाल में अपने प्रेमी को फंसने से रोकने का काम प्रेमिका जितनी अच्छी तरह से कर सकती है, उतने अच्छे से और कोई नहीं कर सकता। ये सभी काम जबर्दस्ती के बजाए प्यार-मोहब्बत से बेहतर हो सकते हैं। इसलिए विजातीय आकर्षण के मामले में युवा पीढ़ी को नैतिकता, आदर्श, संस्कृति के मोटे-मोटे उपदेशों की आवश्यकता नहीं है। इसकी विपरीत उन्हें आवश्यकता है, ऐसे स्थलों की, जहां वे बैठकर शांति के साथ बातचीत कर सकें। ऐसा कोई एकांत नहीं मिलने के कारण ही वे युवा पब या गंदे रेस्टॉरेंट में बैठकर खुलेआम अपने प्रेम का प्रदर्शन करते हैें। क्या करें, उम्र का तकाजा है और दुश्मन जमाना है। इसके बजाए नाना-नानी, दादा-दादी जिस तरह से पार्क में बैठकर बातें करते हैं, ठीक वैसे ही ऐसे पार्क भी होने चाहिए, जो केवल ओर केवल प्रेमी-युगल के लिए हों। जहां बैठकर दोनों दिल-खोलकर बातें कर सकें।
तो, साथियो, प्रेम को खिलने दो और हे युवतियों, इस बार वेलेंटाइन डे पर अपने प्रेमी के सामने यह शर्त अवश्य रखें 'यदि तुमने किसी समाज विरोधी गतिविधि में भाग लिया, तो हमारे संबंध समाप्त हो जाएंगे।' इस तरह का 'मुलायम अंकुश' युवाओं को उग्र या देशद्रोही बनने से रोक देगा, तो वेलेंटाइन डे एक निजी और सार्थक उत्सव बन जाएगा, इसमें शक नहीं।
दीपक सोलिया, जाने -माने पत्रकार और स्तंभकार हैं।

मंगलवार, 10 फ़रवरी 2009

बेहतर शिक्षा स्कूल में नहीं, जीवन की शाला में


डॉ. महेश परिमल
एक बार एक व्यक्ति अपनी पाँच वर्षीय पुत्री के साथ एक दोस्त की बनाई फिल्म देख रहे थे। स्क्रीन पर जब मनीष आए, तो उनकी बिटिया ने कहा कि ये तो मेरा दोस्त है। दूसरे ही क्षण स्क्रीन पर जब एक लड़की आई, तो वह रो रही थी। अरे! ये तो मेरी फ्रेंड है। उसके पापा ने पूछा-कैसे? तो उसका कहना था कि वह बहुत दु:खी है, मैं उसका हाथ पकड़कर कहूँगी कि दु:खी होने की आवश्यकता नहीं है। सोचो, क्या इस तरह की शिक्षा किसी स्कूल में बच्चों को मिल सकती है?
क्या बच्चों को बिना शाला भेजे उन्हें पूरी तरह से शिक्षित किया जा सकता है? कुछ समय पहले तक इस प्रश्न का उत्तर शायद ठीक से बता न पाते हों, पर आज यह सच साबित हो रहा है कि बच्चों को स्कूल भेजे बिना ही न केवल शिक्षित बनाया जा सकता है, बल्कि उन्हें सारी विद्याओं में पारंगत भी किया जा सकता है। इसे साकार करने के लिए बेंगलोर, मसूरी, लखनऊ और उदयपुर में बिलकुल गुरुकुल की तरह बच्चों को शिक्षित किया जा रहा है। यहाँ से निकलने वाले बच्चे न केवल मेधावी होते हैं, बल्कि दुनियादारी को पूरी तरह से समझने वाले होते हैं।
आज की शिक्षा को लेकर एक बार फिर बहस छिड़ गई है। मुद्दा यह है कि क्या आज शालाओं में दी जा रही शिक्षा क्या बच्चों के लिए उपयोगी है? आखिर शाला जाकर बच्चे सीखते क्या हैं? क्या आज की शिक्षा उन्हें एक ही दिशा में सोचने वाली मशीन के रूप में तो तब्दील नहीं कर रही है। आज की शिक्षा बच्चों की नैसर्गिक शक्तिओं को कुचलने का प्रयास कर रही है। इसके अलावा वे शालाओं में किसी कला में तो पारंगत नहीं हो पाते। तो फिर मतलब है इस शिक्षा का? इस दिशा में किसी नए विचार को स्वीकार करने के लिए नई पीढ़ी क्यों आगे नहीं आ रही है। आखिर क्या बात है कि लोग मौलिक रूप से विचार करने की शक्ति क्यों गुमाने लगे हैं?
हार्वर्ड बिजनेस स्कूल में पढ़े-लिखे मैनेजमेंट कंसल्टेंट और इन दिनों बेंगलोर में रहने वाले क्रिश मुरली ईश्वर को एक दिन विचार आया कि हमें नौकरी करने के बजाए किसी मौलिक प्रोजेक्ट पर काम करना चाहिए। इस प्रोजेक्ट पर काम करने के लिए उसने अपने बीस वर्ष के केरियर छोड़ दिया। उन्होंने अनेक शिक्षित लोगों को अपने साथ जोड़ने की कोशिश की। कुछ उनसे जुड़े भी, पर कुछ समय बाद उन्हें खयाल आया कि इन लोगों में काम करने का उत्साह नहीं है। वे सभी परंपरावादी निकले, कुछ नया करने का माद्दा उनमें नहीं था। उन्हें विचार आया कि लोग अपनी मौलिक शक्ति आखिर कहाँ गुमा रहे हैं। इसके लिए उन्होंने शालाओं में जाकर वहाँ की शिक्षण पध्दाति का बारीकी से निरीक्षण किया। तब उन्हें महसूस किया कि इन बच्चों की नैसर्गिक शक्ति को कुचल डाला गया है, इसके अलावा इन्हें कोई कला तो सिखाई ही नहीं जा रही है।
क्रिश ने पाया कि नर्सरी में पढ़ने वाले बच्चे खूब सवाल करते हैं, पर बाद भी सवाल करने की उनकी यह शक्ति क्षीण हो जाती है। इसके पीछे उन्होंने यही पाया कि हम आज भी मैकाले की शिक्षा पध्दति को पूरी मूर्खता के साथ अपनाए हुए हैं। तभी क्रिश ने फैसला लिया, उन्होंने पत्नी से विचार-विमर्श कर अपने तीनों बच्चों को स्कूल से निकालकर घर पर ही पढ़ाने का निश्चय किया। अब वे बेंगलोर छोड़कर कोयंबटूर के एक छोटे से गाँव में जाकर रह रहे हैं। इससे वे अपने बच्चों को यह बताना चाहते हैं कि गाँव का जीवन कैसा होता है, इसे बच्चे अच्छी तरह से समझ सकें। अब वे अपने बच्चों को स्कूल की पढ़ाई के अलावा बागवानी, खेती, रसोई, साफ-सफाई आदि काम सीखा रहे हैं। उन्होंने तय किया है कि अब गाँव में रहने के लिए जो घर बनाया जाएगा, उसे वे स्वयं ही बच्चों के साथ मिलकर बनाएँगे। इस तरह की पढ़ाई में बच्चों को इतना अधिक मजा आ रहा है कि उन्होंने टीवी देखना ही छोड़ दिया है।
हमारे बीच बहुत से ऐसे लोग हैं, जो यह तो सोचते हैं कि स्कूलों में पढ़ाई के नाम पर जो कुछ भी हो रहा है, उसे पढ़ाई तो कतई नहीं कहा जा सकता। लेकिन वे केवल सोचकर ही रह जाते हैं। दूसरी ओर कुछ ऐसे लोग भी है, जिन्होंने अपने बच्चों को स्कूल से निकालकर घर पर पढ़ा रहे हैं। अब वैकल्पिक रूप से ऐसी स्कूल खुल रही हैं, जहाँ सामान्य स्कूलों की तरह पढ़ाई न कराकर घर के माहौल के अनुसार पढ़ाई करवाई जा रही है। बेंगलोर के पास 'सेंटर फॉर लर्निंग' एक ऐसी ही संस्था है। इस संस्था में क्रिश की योजना की तरह से बच्चों को शिक्षित किया जाता है। पूरे 40 किलोमीटर के क्षेत्र में फैली विशाल वन-संपदा के बीच स्कूलों की पढ़ाई के अलावा, शारीरिक शिक्षा, संगीत, नृत्य, बागवानी, आध्यात्म आदि विषयों की जानकारी दी जा रही है।
सेंटर फॉर लर्निंग में दसवी कक्षा तक किसी प्रकार की परीक्षा नहीं ली जाती। यहाँ के विद्यार्थी दसवीं के बाद सीधो केम्ब्रिज बोर्ड की आइजीसीएसई परीक्षा देते हैं। इसके बाद 12 वीं में सीधो आईबी डिप्लोमा की परीक्षा देते हैं। ऐसी बात नहीं है कि यहाँ विद्यार्थियों का मूल्यांकन होता ही नहीं। मूल्यांकन एक सतत चलने वाली प्रक्रिया है। यहाँ रहकर विद्यार्थी अपने तरीके से नई-नई चीजों को सीखते हैं। यहाँ किसी सवाल का जवाब रेडीमेड तरीके से नहीं दिया जाता, बल्कि विद्यार्थी स्वयं अपने तरीके से सवाल का जवाब खोजते हैं।
आईआईटी में ग्रेज्युएट होने के बाद पवन गुप्ता नाम के इंजीनियर ने दो दशक पहले हिल स्टेशन मसूरी के पास 'सिंह' नामक संस्था की स्थापना की। श्री गुप्ता ने जब इस क्षेत्र का सर्वेक्षण किया, तब उन्होंने पाया कि यहाँ के लोग अपने बच्चों को ईमानदारी से स्कूल तो भेजते हैं, पर उसका अपेक्षाकृत परिणाम सामने नहीं आता। इन स्कूलों से पढ़ने वाले विद्यार्थियों को नौकरी नहीं मिलती। पुश्तैनी व्यवसाय खेती को वे अपनाना नहीं चाहते। उनकी पुष्टि में खेती करना ओछा काम है। इन अनुभवों के आधार पर पवन गुप्ता ने सोसायटी फॉर इंटिग्रेटेड डेवलपमेंट ऑफ हिमालय नामक संस्था की स्थापना की। इसे ही लोग 'सिंह' के नाम से जानते हैं। इस संस्था में सबसे पहले तो बच्चों ने जो कुछ खोटी या बेकार की शिक्षा प्राप्त की है, उसे भूल जाने को कहा जाता है। इसके लिए उन्हें भारी मशक्कत भी की जाती है। यहाँ परीक्षा से अधिक महत्व पढ़ाई को दिया जाता है। साथ ही रट्टू तोता बनाने की अपेक्षा समझ को बढ़ाने पर जोर दिया जाता है।
यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया से इंजीनियरिंग में डॉक्टरेट की डिग्री प्राप्त करने वाले संदीप पांडे लखनऊ में 'आशा आश्रम' के नाम से एक संस्था चलाते हें। उनका मानना है कि आज की शिक्षा बहुत ही कम विद्यार्थियों को आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करती है। हमारे देश में फैक्टरी की तरह शिक्षा दी जा रही है। इसमें सभी विद्यार्थियों की जरूरतों को पूरा करने में यह शिक्षा विफल साबित होती है। इस कारण इसमें सर्वांगीण पद्यति की आवश्यकता है। आशा आश्रम में तीन घंटे तक नियमित पढ़ाई के बाद ईंट भट्टे पर काम करने वाले बच्चों के लिए विशेष रूप से पढ़ाई की व्यवस्था की जाती है। इस स्कूल में परीक्षा से अधिक महत्व पढ़ाई को दिया जाता है।
उदयपुर में रहने वाले हार्वर्ड से ग्रेजुएट मनीष जैन ने शिक्षांतर नामक एक संस्था की स्थापना की है। इसमें बच्चों को स्कूल की चारदीवारी में कैद किए बिना ही अनेक तरह की कलाओं की शिक्षा दी जाती है। ये कला उनके दैनिक जीवन में उपयोगी साबित होती है। मनीष के अनुसार बच्चे जो कुछ स्कूल में पढ़ते हैं, उससे अधिक तो वे दुनिया की शाला में पढ़ते हैं। हमारा 90 प्रतिशत ज्ञान तो स्कूल के बाहर से ही प्राप्त होता है। स्कूल का पढ़ा हुआ तो बहुत ही कम काम आता है। दूसरी ओर जीवन की पाठशाला से प्राप्त किया हुआ ज्ञान हर जगह काम आता है। इन्होंने भी अपने बच्चों को स्कूल से निकालकर अपने तरीके से पढ़ाना शुरू कर दिया है।
आज स्कूलों में जो शिक्षा दी जा रही है। उसका उद्देश्य स्वतंत्र रूप से विचार कर सके, ऐसे नागरिक तैयार करने का नहीं है। आज उन्हें जो कुछ पढ़ाया जा रहा है, उसे बच्चे ऑंख बंदकर स्वीकार रहे हैं। शिक्षा के नाम पर एक तरह से चावी के खिलौने तैयार करने का काम हो रहा है। आज नागरिकों में मौलिक विचार करने की शक्ति समाप्त हो गई है। इसके अलावा जो विचार उसे योग्य नहीं लगते, उसका विरोध करना भी आज की शिक्षा नहीं सिखाती। संसद में शोरगुल के बीच जो कुछ भी विधोयक पास होता है, मूक जनता उसे सहजता से स्वीकार कर लेती है। जिस दिन नागरिकों को भयमुक्त बनाने और अत्याचार के सामने आवाजा उठाने की शिक्षा दी जाएगी, उसी दिन हम सच्चे अर्थों में स्वतंत्र भारत के नागरिक बनेंगे। ये तय है।
डॉ. महेश परिमल

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