सोमवार, 19 जनवरी 2009

चिकित्सकों में घटती मरीज के मर्ज की चिंता



प्रमोद भार्गव
एक समय था जब चिकित्सक और मरीज के बीच करूणा का भावनात्मक रिश्ता अनायास ही कायम हो जाया करता था और चिकित्सक मरीज के मर्ज की चिंता दिल से करता था। लेकिन दवा कंपनियों की व्यावसायिक होड़ ने चिकित्सकों को पहले उपहार और अब रिश्वत देकर मरीज को दवाएं खपाने का जो सिलसिला शुरू किया है उससे चिकित्सक की मनोवृत्ति लालची हुई और करूणा का रिश्ता पैसा कमाने की होड़ में तब्दील हो गया। इसीलिए भारत सरकार के स्वास्थ्य मंत्री ए. रामदास को आईएमए को सलाह देनी पड़ी कि वह उपहार और रिश्वत के लालच से चिकित्सकों को मुक्त बनाए जाने के लिए जागरूकता अभियान चलाये। लेकिन समाज के प्रत्येक तबके में अनैतिक्ता का विस्तार और भ्रष्टाचार की पैठ क्या जागरूकता के थोथे अभियानों से प्रभावित हो पाएगी, यह कहना मुश्किल ही है ?
यह भारत वर्ष में ही संभव है जहां दवाओं का एक बड़ा अनुपात मर्ज को कम या खत्म करने की बजाय मर्ज को बढ़ाने का काम करता हो। सेहत के लिए दो तरह की दवायें खतरनाक साबित हो रही हैं। एक वे जो या तो नकली दवायें हैं, या निम्न स्तर की हैं, दूसरी दवायें ओटीसी मसलन 'ओवर दि काउण्टर' दवायें हैं, जिनके उपयोग के लिए न तो चिकित्सक के पर्चे की जरूरत पडती है और न ही विक्रय के लिए, ड्रग लायसेंस की आवश्यकता रहती है। ऐसी दवायें बडी संख्या में रोगी की सेहत सुधारने की बजाय बिगाड़ने का ही काम ज्यादा कर रही हैं। इसीलिए देखने में आ रहा है कि मामूली रोग भी महीनों में ठीक होने की स्थिति में नहीं आते।
नकली और मिलावटी दवाओं का कारोबार का देश में निरंतर विस्तार हो रहा है। विश्व स्वास्थ्य संगठन और इंडियन मेडीकल ऐसोसियेशन की माने तो नकली और मिलावटी दवाओं का व्यवसाय कुल दवाओं के कारोबार का 35 प्रतिशत तक पहुंच गया है। इस समय देश में दवाओं का कुल कारोबार 22 हजार करोड़ रूपये से अधिक का है। जिसमें से 7 हजार करोड़ की नकली दवायें होती हैं। इसके बावजूद दुनियां में दवाओं के निर्माण में भारत का प्रमुख दस देशों में स्थान है। लेकिन नए क्षेत्रों में जिस तेजी से यह व्यवसाय फैल रहा है, वह चिंता का कारण है। वर्तमान में यह कारोबार उत्तरप्रदेश, मधयप्रदेश, बिहार, हरियाणा, दिल्ली, पंजाब, राजस्थान, पश्चिम बंगाल और महाराष्ट्र को अपने चंगुल में फांस लिया है।
दरअसल सुरसामुख की तरह फैलते इस कारोबार पर अंकुश लगाने की मंशा, सरकार में दिखाई नहीं देती है। न तो जानलेवा कारोबार को रोकने के लिए पदार्थ नियंत्रण कानून की तरह कोई सख्त कानून बनाये जाने की पहल की जा रही है और न ही दवाओं की जांच के लिए पर्याप्त प्रयोगशालाओं की उपलब्धता है। दवाओं की गुणवत्ता की जांच के लिए देशभर में कुल 37 प्रयोगशालायें हैं। जो पूरे साल में बमुश्किल लगभग ढ़ाई हजार नमूनों की जांच कर पाती हैं। नमूने की जांच का प्रतिवेदन देने में भी उन्हें छह से नौ माह का समय लग जाता है। दवा निरीक्षकों की कमी, उनमें व्याप्त भ्रष्टाचार और चिकित्सकों के सहयोग के चलते नकली दवा निर्माता व विक्रेताओं का कारोबार खूब फल फूल रहा है। इसी कारण नकली दवाओं के कारोबारियों की दिलचस्पी अब केवल मामूली बुखार, सर्दी, जुकाम, हाथ पैरों में दर्द की दवायें बनाने तक सीमित नहीं रह गई हैं, वे टीबी, मधुमेह, रक्तचाप और हृदयरोगों की भी दवायें बनाने लगे हैं।
आईएमए इस पर नियंत्रण के लिए मादक पदार्थ नियंत्रण कानून की तरह एक कड़ा कानून बनाये जाने की अपील सरकार से कई मर्तबा कर चुका है। लेकिन सरकार व्यक्ति की सेहत और जीवन से जुड़ा मामला होने के बावजूद इस कारोबार पर लगाम लगाने की दृष्टि से कोई कड़ा कानून नहीं बना रही। हालांकि अटल बिहारी वाजपेयी की राजग सरकार ने इस संदर्भ में पहल जरूर की थी, लेकिन आरोपियों को मौत की सजा देने का प्रावधान रखा जाने के कारण कुछ मानवाधिकार संगठनों ने इसके विरूध्द आवाज उठाई और कानून को ठण्डे बस्ते में डाल दिया गया। हैरानी होती है कि जो कारोबारी चिकित्सकों की सांठ-गांठ से दवा के रूप में जहर बेचकर लाखों लोगों की सेहत और जान से खिलवाड़ कर रहे हैं, उन्हें फांसी के फंदे पर लटकाने में हिचक क्यों ? इसे हम राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमजोरी भी कह सकते हैं।
दरअसल भूमण्डलीकरण के चलते नवउदारवाद ने लालच की जो प्रवृति को बडावा दिया है उसने दवाकंपनियों और चिकित्सकों के गठजोड़ को मरीजों के आर्थिक व शारीरिक शोषण का हिस्सा बना दिया। जबकि सरकार इन हालातों से वाकिफ होने के बावजूद चुप्पी साधो हुए है। हालात यहां तक पहुंच गए हैं कि कुछ दवा कंपनियों ने तो वकायदा चिकित्सकों को सिल्वर और गोल्डन कूपन दिए हुए हैं, जिन्हें चिकित्सक रोगी के पर्चे पर चस्पा कर इसी कंपनी की दवा लिखते हैं। लिहाजा रोगी यहीं दवाएं खरीदनी पड़ती हैं। चिकित्सक का इस बात से कोई काररूणिक नाता नहीं रह गया है कि ये दवाएं मरीज के स्वास्थ्य पर अनुकूल असर डाल रही हैं अथवा प्रतिकूल ? यह लालच इंसान के स्वास्थ्य के साथ जानलेवा खिलवाड़ है।
बाजारबाद की अवधारणा ने ही ओटीसी दवाओं के बाजार को विस्तार दिया है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों के आगमन के बाद इस बाजार में तेजी तो आई ही, वह भयमुक्त भी हुआ दवा कंपनियों के बीच ऐसी दवाओं की बिक्री को लेकर प्रतिस्पर्धा भी बड़ी है। कुछ दवा संगठनों ने तो ओटीसी दवाओं की सूची में और दवायें शामिल करने की दृष्टि से स्वास्थ्य मंत्रालय को ज्ञापन देकर गुहार भी लगाई है। अनेक दवाओं को पेटेंट के दायरे से बाहर कर दिये जाने के कारण भी ओटीसी कारोबार में इजाफा हुआ है। बहरहाल हमारे देश में सेहत के साथ खिलवाड़ भी मुनाफे के कारोबार में तब्दील किये जाने का षडयंत्र धड़ल्ले से चल रहा है और केन्द्र व राज्य सरकारें हैं कि चुप्पी साधो हैं। यह चुप्पी शायद ही रामदास की जागरूक्ता अभियान संबंधी गुहार से टूटे ?
प्रमोद भार्गव

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