शुक्रवार, 16 जनवरी 2009

स्वच्छ जल-सा है रहमान का व्यक्तित्व और संगीत


सुनील मिश्र
भारतीय सिने-संगीत जगत में वे एक असाधारण उपस्थिति हैं। उनके रूप में एक ऐसा युवा हमारे बीच है, जो तमाम विशिष्टताओं के बीच एक साधारण इनसान है।
गीत में अनुभूतियोें का मार्ग जन्नत की तरफ हमें ले जाता है, इस बात पर कभी कोई भ्रम नहीं रहा। एआर रहमान को मिले यश से यह भी विश्वास पक्का हो गया कि संगीत हमारी अस्मिता को अपार यश और गर्व करने लायक वैभव भी प्रदान करता है। अगले दिन सुबह के अखबारों का मस्तक रहमान का गुणगान यों ही नहीं गा रहा था, दरअसल वो उपलब्धि ही ऐसी है, वो खुशी ही ऐसी है कि आठ कॉलम की बाहें भी उसे थाम नहीं पा रही हैं।
एआर रहमान का व्यक्तित्व सचमुच बेमिसाल है। भारतीय सिने-संगीत जगत में वे एक असाधारण उपस्थिति हैं। उनके रूप में एक ऐसा युवा हमारे बीच है, जो अपनी तमाम विशिष्टताओं के बीच एक सहज-साधारण सा इनसान है। अभी कुछ ही वर्ष पहले इंदौर में उनके साथ दो दिन का सान्निध्य इसी तारतम्यता में बार-बार स्मरण हो आता है जब वहां के हवाई अड्डे में, जहाज से उतरकर अपनी मां और खतीजा नाम की छोटी-सी बेटी के साथ वे लता मंगेशकर सम्मान ग्रहण करने आए थे। उनको सामने देखकर उनके संगीतबध्द किए तमाम गानों की पंक्तियां मस्तिष्क की तरंगों में स्पंदित होने लगीं। एक अजीब सी, मगर मनभावन-सी मानसिक अस्थिरता के बीच उनसे जब मुलाकात हुई, तो देखकर भारी विस्मय हुआ था, क्योंकि वे व्यवहारित हुए थे, बिल्कुल एक सहज इनसान की तरह, हमारे-अपने बीच के साधारण मनुष्य जैसे।
रहमान का जीवन कड़े संघर्षों का रहा है। बहुत छोटी-सी उम्र में मां और बहनों की जिम्मेदारी उन पर आ पड़ी, जब उनके पिता एक गंभीर बीमारी में चल बसे थे। पिता संगीत से जुड़े थे। वादक थे। पिता का सान्निध्य उनको भी इसी रास्ते पर ले गया। संगीत बचपन में उनका मार्ग प्रशस्त करता, उसके पहले उनको परिवार की रोजी-रोटी के लिए दक्षिण के प्रख्यात संगीतकार इलियाराजा के आर्केस्ट्रा में एक वादक होना पड़ा। संघर्ष की कहानी थोड़ी लंबी है, गहरे संकट से भरी, मगर रहमान को उनके ऊपर वाले ने सब संकटों से उबारा और फिर एक दिन मणि रत्नम की फिल्म 'रोजा' के संगीत ने फिल्म जगत को अपने संगीत से चमत्कृत किया। चमत्कृत इस बात से भी किया कि संगीत निर्देशक छब्बीस साल का युवा है, एआर रहमान नाम है उसका। इस फिल्म के लिए उनको भारत सरकार की ओर से राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था। रहमान तब से अब तक लगातार हिंदी और तमिल फिल्मोें के लिए संगीत रचनाएं कर रहे हैं और आने वाले तमाम वर्षों की योजनाओं में वे व्यस्त हैं।
नई पीढ़ी का रहमान से यह परिचय जिस गर्मजोशी से बना, वह आज भी बनी हुई है, यह कम महत्वपूर्ण बात नहीं है। इन सत्रह सालों में एआर रहमान ने असाधारण उपलब्धियां अर्जित की हैं। उनकी फिल्मों का संगीत जीवन को एक अनूठे रूमान से भर देता है। उनके द्वारा संगीतबध्द किए गए गीतों को ताजिंदगी सुनते रहने का मन करता है। रंगीला, फायर, दिल से, अर्थ, ताल, तक्षक, पुकार, फिजा, जुबैदा, लगान, द लीजेंड ऑफ भगत सिंह, साथिया, मीनाक्षी: ए टेल ऑफ थ्री सिटीा, युवा, स्वदेश, किसना, मंगल पांडे: द राइािंग, वाटर, रंग दे बसंती, गुरु, प्रोवोक्ड, जोधा अकबर, जाने तू या जाने ना, युवराज, गजनी और स्लमडॉग मिलिनेयर तक आते-आते हमारे सामने एक पूरे के पूरे समय का पुनरावलोकन होने लगता है। यह यात्रा आसान नहीं है। उत्कृष्टता की निरंतरता बने रहने के भी अपने तनाव सर्जक को होते हैं, जिसे सिर्फ वही जानता है। दृष्टियां चाहें वो आलोचना भरी हों या प्रशंसा भरी, उनके भीतर की आक्रामता को सही-सही पहचानने वाला ही रस्सी पर संतुलन बनाकर चलने में सफल होता है। एआर रहमान को हम इस मायने में एक सजग, कुशल और गहरी अंतर्दृष्टि का एक विशिष्ट सर्जक मानें।
रहमान का व्यक्तित्व तल दिखाई पड़ने वाले स्वच्छ जल-सा है। पिछले साल ही फिल्म 'जोधा अकबर' में उनके द्वारा गायी कव्वाली ख्वाजा मेरे ख्वाजा, अद्भुत थी। उनका अंत:करण भी निर्मल है। वे गहन आध्यात्मिकता से जुड़े इनसान हैं। ईश्वर एक समय उनके भीतर की तकलीफ का निवारण नहीं करता, तो यह सर्जक शायद उस सर्जना से वंचित रह जाता, जिसकी वजह आज हमें उन पर गर्व है। बातचीत में उन्होंने इस बात को सहजतापूर्वक स्वीकार किया था। अपने संगीत को भी वे उसी अध्यात्म का हिस्सा मानते हैं। हमेशा रहमान अपने गानों की रिकॉर्डिंग रात में ही करना पसंद करते हैं। स्लमडॉग मिलिनेयर के लिए रहमान को मिला गोल्डन ग्लोब अवार्ड एक ऐसी घटना है जिससे पूरा देश गदगद है। रहमान की मंजिल यहीं पर नहीं है, वे इससे भी काफी आगे के कलाकार हैं। जिस तरह यश, वैभव, उपलब्धियां और मान-सम्मान, रसूख भी, रहमान की नरम मुस्कान और अंत:करण की सहज आध्यात्मिक विनम्रता का कुछ भी नहीं बिगाड़ पातीं, ऐसा काश हम सबके साथ भी हो। इतनी नरमी, इतनी विनम्र मुस्कान हम सबके अहंकार के शूल को भी घातक बनने से रोके, तो कितना अच्छा हो।
बधाई, दिल से रहमान!
सुनील मिश्र
-लेखक सिने-विश्लेषक हैं।
smishr@gmail.com

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