गुरुवार, 4 दिसंबर 2008

आंचलिक भाषाई सांप्रदायिकता के संकट

प्रमोद भार्गव
अब तक सांप्रदायिकता को उन्मादित धार्मांधाता और जातीय विद्वेष के परिप्रेक्ष्य में ही देखा जाता रहा है। लेकिन महाराष्ट्र में दो उत्तर भारतीयों की हत्या के बाद इस भाषाई जघन्यता को हम आंचलिक भाषाई सांप्रदायिकता के विंधवसक रुप में भी देखने को विवश हैं। सत्ता के लिए राजनीतिज्ञों का यह संधीय सोच ही सास्कृतिक राष्जमीअत ने आतंकवाद के खिलाफ प्रस्ताव लाने के अलावा पुरजोर तरीके से इस बात का ऐलान भी किया कि वह किसी भी तरह के आतंकवाद के खिलाफ है और मुल्क में इसके खिलाफ लड़ रहे लोगों के साथ कांधो से कांधा मिलाकर लड़ने के लिए तैयार है। उलेमा ने साफ तौर से कहा कि अगर कोई मुसलमान दहशतगर्दी में शामिल पाया जाए, तो उसे सख्त से सख्त सजा दी जानी चाहिए।राष्ट्रीय अखंडता को विभाजन के संदर्भ में खंडित करने का कारण बना था और अब फिर से स्थानीय राजनीतिक नेतृत्वों में उभार के चलते यह संकट गहरा रहा है। हालांकि सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट चेतावनी दी है कि राज ठाकरे उनकी मनसे और महाराष्ट सरकार किसी को भी देश की एकता को खण्डित करने वाली हरकतें करने की इजाजत नहीं दी जा सकती है। लेकिन स्वयंभू 'मराठी मानुष' है कि मानता ही नहीं।
राष्ट्र या किसी क्षेत्र विशेष के प्रति मोह, चिंता और उसके विकास व रोजगार के प्रति स्वप्नदृष्टि जब आंचालिक भाषावाद, जातिवाद या संप्रदायवाद में तब्दील हो जाती है तो यह अतिवाद की संभावनाओं को जन्म देती है जिसकी परिणति राज्य की प्रतिस्पधारी राजनीति क्रूर व विस्फोटक रुपों में सामने आकर स्थानीय राष्ट्रीयताओं को उभारती है, जो संघीय भारत के खतरों को बढ़ाती हैं क्योंकि भारत एक राष्टीय इकाई जरुर हैं लेकिन उसमें अनेक सास्कृतिक राष्ट्रीयताएं बसती हैं।
शिवसेना से अलग होने के बाद राज ठाकरे ने महाराष्ट्र में अपनी स्वतंत्र राजनीति की स्थापना के दृष्टिगत तथाकथित महाराष्ट्र व मराठी भाषियों को लुभाने के प्रति जो आक्रामक बयानेबाजियों की मुहिम चला रखी है यह बेलगाम स्थिति और इससे उपजी प्रतिक्रियाएं संकीर्ण राज्यवाद को जन्म देने वाली हैं। आंचलिक भाषाई संप्रदायवाद के आधार पर समाज के एक वर्ग को दूसरे वर्ग के विरुध्द खड़ा करने की ये जघन्य राजनीतिक हरकतें सामाजिक समग्रता और सांस्कृतिक चेतना के लिए खतरा हैं। इसी का प्रतिफल रहा कि मुबंई में जब रेलवे की परीक्षा देने गए अभ्यार्थियों को शिवसेना और मनसे के बाहुबलि गुर्गे खदेड़ते हैं तो बिहार में इनका प्रतिक्रिया स्वरूप आक्रोश राष्ट्रीय संपत्ति को नष्ट करने के रुप में सामने आता है। हांलाकि ये प्रति-घटनाएं केवल स्व - स्फूर्त नहीं होतीं बल्कि राज्य की प्रतिस्पधारी राजनीति और उससे जुड़ी ताकतें अंदरुनी स्तर पर इन्हें उकसाने का काम करतीं हैं।
दरअसल आजादी के साठ साल बाद भी हम औपनिवेशिक मानसिकता से पूरी तरह मुक्त नहीं हो पाए हैं, इसी कारण हम एक देश के रुप में राष्ट्रीय इकाई होने के बावजूद हम पर क्षेत्रीय राष्ट्रीयताएं भाषावाद, क्षेत्रवाद, जातिवाद व संप्रदायवाद अन्यान्य रुपों में हावी हैं, नतीजतन जैसे ही किसी भी वाद को हौवा बनाने के उपक्रम शुरु होते हैं वह क्षेत्रीय राजनीति के फलक पर उभर आता है। आंचलिक या स्थानीयता के इन्हीं उभारों के चलते शिवसेना, महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना, तृण-मूल कांग्रेस, गोंडवाणा गणतंत्र पार्टी और बहुजन समाजपार्टी अस्तित्व में आई। दरअसल आंचलिकता का उभार ही जन जागरण से जुड़ा होता है। स्थानीयता क बहाने ही दलित और पिछड़ों के बहुजन राष्टीय राजनीति के मुख्य फलक पर उभरे हैं। भूमण्डलीयकरण के प्रभाव और बाजारवाद की आंधी में यह भ्रम होने लगा था कि स्थानीयता के मुद्दे कमजोर पड़ जाएगें। वैश्वीकरण की अवधाारणा में स्थानीयता का विलोपीकरण हो जाएगा। अमेरिकी पूँजीवादी एकरुपता जैसे दुनिया के बहुलतावाद को खत्म कर देगीं ? हालांकि ये शंकाये पूँजीवादी अर्थव्यवस्था ढहने के बाद स्वयं समाप्त हो गईं। पर आजादी के समय जो सवाल अनुत्तरित थे वे आज भी कमोबेश अनुत्तरित ही हैं। बहुजन का उभार और उसका सत्ता में पर्याप्त हस्तक्षेप भी इन सवालों के व्यापक अर्थ अथवा राष्टीय परिप्रेक्ष्य में उत्तर तलाशपाने में असफल ही रहा।
स्थानीयता के मुद्दे ने ही कश्मीर के सवाल को चिर-प्रश्न बनाया हुआ है। जबकि कश्मीर का सवाल भी शिवसेना या मनसे के सवाल की तरह 'मुबंई सिर्फ मराठी-भाषियों के लिए है ' की तर्ज पर मुस्लिम या इस्लाम के लिए नहीं हैं वह भारत की अखंडता और सार्वभौमिकता से जुड़ा है। कश्मीर के महाराजा हरिसिंह ने सामंतवादी राज्यों के भारत में विकीनीकरण के दौरान अभिलेखों पर हस्ताक्षर कर राज्य सत्ता का हस्तातंरण भारत की प्रभुता के लिए किया था। कमोबेश इसी तरह की प्रक्रियाओं को अमल में लाने के साथ ही तमाम बड़ी रियासतें भारत का संवैधाानिक अंग बन गई थीं। लेकिन कालांतर में पाकिस्तानी शह और सहयोग से कश्मीर में मुस्लिम हित और इस्लाम का राग अलापा जाने लगा। हिंदुओं को अलगाववादी निशाना बनाकर खदेड़ने लगे। स्थानीय नेतृत्व ने प्रांतवाद के ऐसे ही सोच को उभारकर भारत को 'संघीय भारत' के रास्ते पर डाल दिया। क्योंकि राष्ट्रीय इकाई और क्षेत्रीय राष्टीयताओं के बीच बेहद बारीक विभाजन रेखा है जिसे स्थानीय सरोकारों से बरगलाकर उभारना किसी भी विघटनकारी नेतृत्व के लिए सरल व सहज है। खालिस्तान, नागालैण्ड, बोडोलैण्ड, गोरखालैण्ड, मराठालैण्ड इन्हीं क्षेत्रीय राष्ट्रीयताओं की उपज हैं।
यहां सवाल यह भी उठता है कि आंचलिकता अथवा स्थानीयता जब मानवीय सभ्यता और संस्कृति की इतनी मजबूत विरासत के रुप में अवचेतन में बैठी अवधाारणा है तो इन्हें गंभीरता से क्यों नहीं लिया जाता ? इंदिरा गांधी पंजाब में अकालियों की राजनीति खत्म करने के लिए भिंडरावाले को राजनीतिक सरंक्षण देकर खड़ा करती हैं और वह स्वयंभू तथाकथित आतंकवाद के बूते खालिस्तान का राष्ट्रधयक्ष बन बैठता है। ठीक इसी तर्ज पर शिवसेना को कमजोर करने के दृष्टिगत राज ठाकरे और उनकी स्थानीय अस्मिताओं को उभारने का भरपूर मौका महाराष्ट्र सरकार देती हैं, जिससे कांग्रेस और राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी फायदे में रहें। अन्यथा राष्ट्रद्रोह की बयानबाजी करने वाले राज ठाकरे के विरूध्द कोई कठोर कारवाई करने से मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख क्यों हिचकिचाते रहें ? दल व व्यक्तिगत मंशाओं की पूर्ति के दृष्टिगत दायित्व निर्वाह में शिथिलता व लापरवाही बरतना भी एक तरह राष्टीय अनैतिकता है, जिसे अपराधा के दायरे में लाना चाहिए ? वैसे भी किसी भी सत्ताधारी को यह भ्रम नहीं पालना चाहिए कि अतिवाद उनके हितों के लिए लाभकारी सिध्द होगा। मुंबई में 1992 में हुए सांप्रदायिक दंगों के कारण कांग्रेस से मुसलमान अलग हुआ और अब राज ठाकरे का मराठी अतिवाद उत्तर भारतीयों को अलग कर दे तो कोई हैरानी नहीं ?
दरअसल अकेले गांधाी ने व्यक्तिगत स्थानीयता और राष्ट्रीयता के परस्पर सामंजस्य को समझने की कोशिश की थी। उन्होने मार्गदर्शन करते हुए इसीलिए लघु परंपराओं के महत्व को बार-बार उल्लेखित किया है क्योंकि वे स्थानीयता या आंचलिकता की आधाारशीला हैं। निम्न वर्गों, वर्णों, जातियों और समुदायों की मानसिक स्थितियों की समझने की कोशिश करतें हैं। जबकि बृ्रहत परंपराओं के तहत उपरोक्त स्थितियों को समझा ही नहीं गया।
दलित और पिछड़ों के सामूहिक रुप से सत्ता में आने के बाद यह उम्मीद की जा रही थी कि अब तमाम अनुत्तरित सवालों के हल ढ़ूढ़ लिए जाएंगें ? परतुं ठीक इसके विपरीत 1990 के बाद से संसद में गरीब, अल्पसंख्यक और महिलाओं की चर्चा को नकारते हुए भूख, असमानता और सामाजिक न्याय के मुद्दे भी संसद से गायब हो गए। अब वहां जाति, अपराधाी और पूंजी के माफिया तंत्र का बोलबाला है। जिसकी ताकत में लगातार इजाफा हो रहा है। करीब एक सौ पूंजीपति राज्यसभा में हैं। लिहाजा अब राष्टीय व सर्वजन हितैषी मुद्दों की बजाय बाजार, सेंसेक्स फेरा की चर्चा होती है। जबकि संसद से सामाजिक समरसता का ऐसा संदेश जाना चाहिए था कि कश्मीर में हिंदुओं को रक्षा के लिए मुस्लिम सामने आएं, गुजरात मुस्लिमों की और कंधामाल में ईसाइयों की सुरक्षा को हिंदू आगे आएं, इस तारतम्य में महाराष्ट्र में उत्तर भारतीयों पर हो रहें हमलों को रोकने के लिए सामंजस्य स्थापना की बागडोर मराठी समाज मुखर होकर सामने आए ? अन्यथा अलगाव व वैमन्स्यता के इस जहरवाद के परिणाम घातक ही निकलेंगें।
प्रमोद भार्गव

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