बुधवार, 3 सितंबर 2008

अपने आपको जानना सीखें



डॉ. महेश परिमल
यदि आपसे यह पूछा जाए कि आप अपने जीवन में सबसे अधिक महत्व किसे देते हैं, तो यह तय है कि आपकी ऑंखों के सामने ऐसे कई चेहरे उभर आएँगे, जो आपके अपने हैं। इन चेहरों में कोई चेहरा माता-पिता का है, तो कोई भाई-बहन, मित्र-सखी-सहेली का है। रिश्तों की सीप खुलकर हर चेहरा एक मोती-सा चमकता है और हमारी ऑंखों में अपनेपन की रोशनी भर देता है। यह सच है। कभी-कभी तो ऐसा भी होता है कि हम रिश्तों को महत्व न देकर अपने आसपास के वातावरण और परिस्थितियों से जुड़ जाते हैं और अपनेपन का एक अलग ही रिश्ता कायम कर लेते हैं। हमारे लिए वही रिश्ता सबसे अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है। हम उसे ही अपने जीवन में सबसे अधिक महत्व देने लगते हैं। यह अच्छी बात है, किंतु इससे भी अधिक अच्छी बात यह होगी कि हम अपने जीवन में किसी और को अधिक महत्वपूर्ण मानने से पहले स्वयं को ही महत्व दें।
आपके अपने जीवन में आपके लिए सबसे अधिक महत्वपूर्ण व्यक्ति कोई और नहीं, बल्कि आपका स्वयं का व्यक्तित्व होना चाहिए। आपके अपने जीवनकाल में कोई एक व्यक्ति ऐसा है, जिसे बहुत अधिक प्यार करते हैं, यह अच्छी बात है, किंतु उससे भी कहीं अधिक आप केवल और केवल अपने आपको ही प्यार करते हैं, यह उससे भी कहीं अधिक अच्छी बात है।
अपने आपको महत्व देना, अपने बारे में अधिक से अधिक सोचना, अपना विशेष ध्यान रखना, ये स्वार्थ नहीं, अपितु परमार्थ की शुरूआत है, क्योंकि जब व्यक्ति अपने बारे में सोचेगा, समझेगा, महत्व देगा, तभी तो वह स्वयं के प्रति निश्चिंत होकर दूसरों को महत्व दे पाएगा।
आप में से बहुत से इस विचार से सहमत न होकर इसका मखौल उड़ाएँगे और कहेंगे कि यह बात बिल्कुल गलत है। केवल स्वयं को महत्व देना स्वार्थ के अलावा और कुछ नहीं है। फिर हमारे संस्कार ही ऐसे नहीं है कि हम इतने स्वार्थी बनें। हमें यह नहीं सिखाया जाता कि हम खुद के लिए जिएं। हमें तो बचपन से ही संस्कारों की यही घुट्टी पिलाई जाती है कि दूसरों के लिए जीते हुए अपना सर्वस्व होम कर दो। अपने जीवन के छोटे-छोटे खुशी भरे क्षण, सपने, आशाएँ, महात्वाकांक्षाएँ, विचार यहाँ तक कि शरीर की आहूति भी दूसरों के जीवन को निखारने के लिए पूरे समर्पण भाव से दे दो। यही जीवन का सारांश है, संस्कार है और एकमात्र उद्देश्य भी।
इन सर्वोच्च संस्कारों के बीच जीते हुए कभी एकांत में अपने आप से बातें करें, तो पाएँगे कि हाँ, हमने अपने आपसे तो कभी रिश्ता बनाया ही नहीं। कभी खुलकर खुद से तो बात की ही नहीं। हम स्वयं के बारे में तो कुछ जानते ही नहीं। कई बार ऐसा होता है- हमें लेकर यानि कि हमारे व्यक्तित्व को लेकर सामने वाला व्यक्ति इतना कुछ कह देता है कि हमें लगता है कि हमने तो खुद को लेकर कभी ऐसा सोचा ही नहीं। अपनी ही नजरों में झेंप तब महसूस होती है, जब कोई कहता है- तुम पर तो पूरा एक ग्रंथ लिखा जा सकता है और हम स्वयं अपने बारे में एक पंक्ति लिखने में भी खुद को असमर्थ पाते हैं।
ऐसा क्यों होता है? क्योें जीवन की इस स्पर्धा में हम इतने दौड़ते-भागते हैं? रिश्तों के जाल में इतने उलझते चले जाते हैं कि स्वयं के लिए ही समय नहीं निकाल पाते। दूसरों की नजरों में 'परफेक्ट' होने का दम भरने वाले हम स्वयं के 'परफेक्ट' होने का तुलनात्मक अध्ययन आईने के सामने करने का साहस भी नहीं कर पाते। हम स्वयं को भूलते जा रहे हैं। अपने आपसे दूर होते जा रहे हैं। यह केवल एकाकीपन की निराशावादी सोच नहीं वरन् आज की दौड़ती-भागती जिंदगी की सच्चाई है। हर तरफ लाखों-करोड़ों की भीड़ होते हुए भी आदमी अपने आपमें अकेला है। यह अकेलापन सिर्फ इसलिए क्योंकि उसने अपने आपसे दोस्ती नहीं की। जब भी उसे फुरसत मिली, वह बाहर की दुनिया में लोगों से जुड़ता चला गया। उसकी जिंदगी में एक के बाद एक कई चेहरे महत्व से महत्वपूर्ण बनते चले गए, पर उसका अपना चेहरा ही धुँधला होता चला गया। नतीजा यह हुआ कि आदमी अकेला हो गया। यदि उसने अपने आपसे ही दोस्ती की होती तो वह कभी अकेला न होता। किंतु आज आदमी भीड़ में भी अकेला है और एकांत में भी अकेला। उसके साथी हैं केवल उसके ऑंसू। वे भी ऑंखों से रिश्ता तोड़कर हिचकियों के बीच उसे ले जाते हैं। याद रखें आप जिसके लिए ऑंसू बहा रहे हैं, वह आपके उन ऑंसुओं के लायक ही नहीं है और जो आपके ऑंसुओं के लायक है, वह कभी आपको ऑंसू बहाने ही नहीं देगा।
अकेलापन दो तरह का होता है- भीड़ के बीच मिलनेवाला अकेलापन और दूसरा एकांत में मिलनेवाला अकेलापन। दोनों ही स्थितियों में आदमी निराशा के गर्त में डूबता चला जाता है, किंतु यदि आदमी ने स्वयं से ही एक नाजुक रिश्ता बनाया हो, तो अकेलापन उस पर हावी नहीं होता और स्वस्फूर्त प्रेरणा का ऐसा स्रोत फूटता है कि उसका कल्पना संसार ऐसी सर्जना करता है कि उसकी अस्मिता कोहिनूर की तरह चमक उठती है। इसलिए अपने आप से नाता जोड़ें और खुद से बात करें। दूसरों की शिकायत करने के पहले अपने आप को देखें कि आपको अपने आप से कितनी शिकायत है? जिस क्षण आपने ऐसा सोचना शुरू कर दिया, समझ लो, जीवन का दर्शन समझ लिया।
डॉ. महेश परिमल

2 टिप्‍पणियां:

Post Labels