गुरुवार, 7 अगस्त 2008

चिंतन स्वयं से बातें करो


डॉ. महेश परिमल
एक बार एक व्यक्ति ने अपने मोबाइल से कई लोगों से बात की, सबसे बात करके वह काफी खुश था। अपनी इस खुशी को वह जाहिर करना चाहता था। पर कैसे? वह मेरे पास आया और कहने लगा- मैं बहुत खुश हूँ, क्योंकि मैंने अपने सारे अपनों से आज जी भरकर बात की है। मैंने कहा-बहुत अच्छी बात है, मेरे दोस्त। मेरा एक काम करो- अपने मोबाइल पर एक नम्बर तो लगाओ। मैंने नम्बर बताया, उसने वे नम्बर डायल किए। वह हतप्रभ था कि वह नम्बर एंगेज जा रहा था। थोड़ी देर बाद उसने फिर वही नम्बर लगाया, फिर एंगेज। ऐसा उसने कई बार किया, हर बार नम्बर एंगेज ही होता। अपनी खुशी में वह यह भी भूल गया कि वह जो नम्बर डायल कर रहा है, वह वास्तव में उसी का नम्बर है।
अकसर ऐसा ही होता है, दूसरों से बात करने के लिए लाइन हमेशा खाली मिलती है, पर स्वयं से बात करने के लिए लाइन हमेशा एंगेज मिलती है। इंसान सबसे बात कर लेता है, पर अपने आप से कभी बात नहीं कर पाता। जो अपने आप से बात कर सकता है, वह ज्ञानी है। आज लोगों की उदासी और निराशा का सबसे बड़ा कारण यही है कि वह अपने आप से ही दूर रहता है, बाकी सभी के पास रहना चाहता है और रहता भी है। उसके भीतर का मैं हमेशा उससे बात करने के लिए लालायित रहता है, पर इंसान के पास समय ही कहाँ है, जो अपने से बात कर पाए। जिस दिन इंसान ने अपने से बात कर ली, समझ लो, उसके आधे दु:ख दूर हो गए।
मानव की यही प्रवृत्ति है कि वह दूसरों के बारे में अधिक से अधिक जानने की इच्छा रखता है, पर अपने बारे में कुछ भी जानना नहीं चाहता। अपने को न जानना ही दु:ख का कारण है। जो अपने को नहीं जानता, वह कितना भी विद्वान क्यों न हो, पर उससे बड़ा कोई अज्ञानी नहीं है। ज्ञान का सही अर्थ अपने आप को जानना ही है। देखा जाए, तो ज्ञान मानव के भीतर ही होता है, गुरु केवल उस ज्ञान को जाग्रत करने का माध्यम होता है। मानव के भीतर अथाह ज्ञान का सागर है, पर वह उसे बाहर से प्राप्त करने का प्रयास पूरे जीवन करता रहता है। मानव जीवन की सार्थकता इसी में है कि वह अपने भीतर से ही ज्ञान की गंगा बहाए। असीमित संसाधनों का स्वामी होने के बाद भी वह कंगाल बने रहता है। उसके दु:ख का कारण वह स्वयं ही होता है। उसे सबसे बड़ा दु:ख इसी बात का होता है कि सामने वाला सुखी क्यों है? मानव सबकी प्रसन्नता नहीं देख पाता, इसीलिए वह दु:खी रहता है। अपने आप से बात करे, अपनी अपरिमित शक्तियों को पहचाने, तो कोई कारण ही नहीं हो सकता, जो उसे दु:खी करे।
दु:ख और सुख ये मन के भाव हैं, जिसे हमें अनुभव करना होता है। लोग बंधन में भी सुख की अनुभूति प्राप्त करते हैं, जंगल में रहकर भी ऐश्वर्यशाली जीवन जीते हैं। पागल अपने आप से बातें करते हैं, पर क्या वे सुखी हैं? नहीं, क्योंकि मेघावी होने की पराकाष्ठा ही पागलपन है। वह जाग्रत अवस्था में अपने आप से बातें नहीं करते, बल्कि वे अचेतनवस्था में अपने आप से बातें करते हैं। ज्ञानी अपने आप से ही बातें करते हैं। कई बार निर्णय लेने में मस्तिष्क काम नहीं करता, पर हृदय अपनी बात अवश्य कहता है। विवेकानंद जी ने कहा है कि निर्णय की स्थिति में जब दिल और दिमाग हावी हों, तो दिल की बात माननी चाहिए। दिल की बात इसलिए माननी चाहिए कि दिल ही हमसे करीब होता है, दिमाग तो समय के साथ-साथ बढ़ता है, पर दिल हमेशा से अपने पास रहता है। दिमाग काम करना बंद कर सकता है, पर दिल नहीं। इसीलिए जो दिल की बात सुनते हैं, वे ही अपने आप को बेहतर समझते हैं।
सब-कुछ हमारे ही भीतर है, इसलिए कहीं जाने की आवश्यकता नहीं है। किसी से सच ही कहा है कि अंधेरे में हो, इसलिए अकेले हो, उजाले में आओ, कम से कम छाया का तो साथ मिलेगा। भीड़ में भी जिसने अकेले रहना सीख लिया, वही होता है असली इंसान।
डॉ. महेश परिमल

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