शुक्रवार, 18 जुलाई 2008

सितारे और समाज


सुनील मिश्र
कुछ दिनों पहले एक चैनल में एक हृदय रोगी बच्ची के बारे में समाचार दिया जा रहा था कि बीमारी के हिसाब से चिकित्सा का खर्च चुकाने में असमर्थ बच्ची का परिवार इस बात के लिए हताश है कि उसकी प्राण रक्षा कैसे हो? इस पर अमिताभ बच्चन ने तुरन्त इस समाचार प्रसारण के बीच में ही उस चैनल से सम्पर्क कर उस बच्ची की चिकित्सा का सारा खर्च स्वयं वहन करने का मन्तव्य बताया। देखते ही देखते एक उदास खबर एक खुशनुमा खबर में तब्दील हो गयी कि अमिताभ बच्चन ने आगे बढ़कर अपनी संवेदना का परिचय दिया। अमिताभ ने तत्काल ही दो लाख पचास हंजार रुपए का चेक भी इलाज के लिए भिजवा भी दिया। ऐसा ही सलमान खान का भी ािक्र था कि मायस्थेनिया ग्रेविस से ग्रस्त मराठी के प्रख्यात दलित कवि नामदेव ढसाल को उन्होेंने इलाज के लिए अर्थ सहयोग प्रदान किया।
ऐसी खबरें से सवाल उठता है कि ऐसा आखिर कितने और कौन सितारे करते हैं? कौन सितारे चुपचाप करते हैं और कौन ढोल बजाकर? हमारे देखने में कितने बार ही आया है कि सितारों ने अपनी मुसीबतों से निजात पाने के लिए बेतहाशा धन देवालयों में चढ़ावे के रूप में चढ़ाया है। और बहुत से लोग सोना, जेवर, आदि के रूप में जिस तरह से अपना तमाम वैभव लुटाते हैं उसी के साथ-साथ समाज का ख्याल करते हैं ।

मुम्बइया सिनेमा में ऐसे उदाहरण कम हैं मगर दक्षिण के सिनेमा में इस तरह के उदाहरण बहुत सारे हैं। दक्षिण में सबसे विशिष्ट बात उल्लेखनीय यह है कि बड़े-बड़े सितारे सामाजिक उत्तरदायित्वों से सीधे जुड़े हैं और उनके सरोकार आम जनता से सीधे स्थापित हैं। ऐसे कलाकारों में शिवाजी गणेशन, रजनीकान्त, चिरंजीवी, कमल हासन, एस.पी. बालसुब्रमण्यम, मोहनलाल, मम्मूटी आदि कितने ही नाम लिए जा सकते हैं। एम.जी. रामचन्द्रन और एन.टी. रामाराव अपने ऐसे ही सामाजिक रिश्तों के कारण दक्षिण में देवताओं की तरह पूजे जाते थे। चिरंजीवी ने तो ऑंखों का एक बड़ा सा अस्पताल बनवा रखा है और पता नहीं कितने नेत्रों को ज्योति देने में अपना योगदान किया है। रजनीकान्त की उदारता की घटनाएँ तो इतनी हैं कि वे अपने यहाँ पूज्य हो गये हैं। दक्षिण भारतीय जनता के लिए इन कलाकारों से मिलना बेहद सहज होता है। दक्षिण भारतीय सितारे शीर्ष पर पहुँचकर भी ंजमीन पर रहते हैं ।

मुम्बइया सिनेमा के कई सितारे अर्जन के मोह से छुटकारा ही नहीं पाना चाहते। अच्छी खासी माली हालत होने के बावजूद रसूख वाले राज्यों में तमाम ज़मीन अर्जित कर लेना चाहते हैं। ंसिनेमा से जुड़े ऐसे तमाम लोग हैं जिन्होंने स्टुडियो के नाम पर, इन्स्टीटयूशन के नाम पर, फिल्मसिटी के नाम पर इस तरह की ंजमीन जायदाद खूब इकट्ठी कर ली है। जिस काम के लिए उन्हें यह सम्पदा हासिल हुई वह काम तो एक तरफ ही रखा रह गया। इसके विपरीत राज्य में ही सार्थक कामों के लिए सरकार का मुँह ताकने वालों को हतोत्साहित बने रहना पड़ता है क्योंकि उनकी कोई सितारा छवि नहीं होती।

हालाँकि मुम्बइया सिनेमा के कई सितारे ऐसे हैं जिन्होंने निरपेक्ष भाव से समाज से अपना रिश्ता बनाया है। समय-समय पर आपदाओं में, मुसीबत में, हादसों में वे समाज की मदद के लिए आगे आये हैं मगर ऐसे सितारों की संख्या उंगलियों पर गिनने लायक ही होगी। कई सितारे समाज सेवा और संवेदना के नाम पर कुछ समय की सुर्खियाँ बनकर, पीठ दिखा दिया करते हैं। सुप्रसिध्द पार्श्व गायक स्वर्गीय मुकेश बेहद संवेदनशील इन्सान थे। वे सर्दी की रातों में देर से फिएट कार में अपनी पत्नी के साथ निकलते थे खूब सारे कम्बल लेकर। फिर उन्हें जो भी बिना चादर-कम्बल के ठिठुरता दिखायी देता था, उसे धीरे से जाकर ओढ़ा दिया करते थे। यह बात उनके बेटे नितिन ने बतायी। किशोर कुमार को कन्जूस कहा जाता था मगर उन्होंने ंजरूरतमन्द को ठोंक-बजाकर पहचान लेने के बाद लाखों रुपए बिना ढिंढोरा पीटे गरीबों, बीमारों और परेशानहाल लोगों में खर्च किए।

विवेक ओबेराय जैसे कलाकार अपनी सामाजिक प्रतिबध्दता का परिचय देने में कभी पीछे नहीं रहते। इसकी प्रेरणा उन्हें अपने पिता से मिली है। कुछ वर्षों पहले सुनामी तूंफान ने महाविनाश मचाया था, तब विवेक ने समुद्री तूंफान पीड़ितों के बीच महीनों रहकर काम किया था। उन्होंने तो पुनर्वास के लिए गाँव भी गोद लिए थे और अपने कैरियर को ताक पर रख दुखियों और विपदाग्रस्त लोगों की सेवा की थी। गुजरात में भूकम्प के समय आमिर खान और अमिताभ बच्चन के भी कुछ गाँवों को गोद लिए जाने की खबरें थीं मगर वहाँ इनका कितना योगदान रहा, इसका उदाहरण समाज से सामने प्रचारित ही नहीं हुआ। भूख और गरीबी से बाबस्ता रहे मिथुन चक्रवर्ती की दयालुता के तमाम किस्से हैं।
कलाकारों को सितारा कहा जाता है क्योंकि वे आसमान पर रहते हैं और समाज का अस्तित्व ंजमीन पर होता है। ऐसे दो विरोधाभासों का मिलना दुरूह ही माना जाएगा मगर विरले सितारे ऐसे होते हैं जिनका कर्म ऐसी दूरी को पाटना होता है और वे ऐसा कोई अवसर अपने हाथ से जाने नहीं देते। यह बात क्या उन तमाम कलाकारों को झकझोरती नहीं, जो आज के चलन में गहरे रंग वाले काँच का चश्मा पहनकर ही समाज के बीच नंजरें झुकाए आया-जाया करते हैं? क्या इस अहंकार, इस झेंप को मिटाने कोई पहल उनके भीतर से उन्हें उकसाती नहीं?
सुनील मिश्र
smishr@gmail.com

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