सोमवार, 7 जुलाई 2008

ऐसे क्रिकेटर किस काम के


नीरज नैयर
अभी हाल ही में एक खबरिया चैनल के टॉक शो में इस बात पर बहस चल रही थी कि क्या सचिन तेंदुलकर को भारत रत्न से नवाजा जाना चाहिए. जाहिर है क्रिकेट को धर्म और क्रिकेटरों को देवता समझने वालों के मुंह से न कैसे निकल सकता है. सो अधिकतर लोगों के हाथ हां में ही खड़े हुए. खेल जगत में अगर सचिन की उपलब्धियों को सहेज कर देखा जाए तो उनके कद के आगे हर पुरस्कार छोटा है. अपने चौकों-छक्कों से क्रिकेट की किताब में भारत की जो तस्वीर उन्होंने उकेरी है वह अतुल्य है. खेल की दुनिया के बड़े से बड़े सम्मान पर बेशक सिर्फ और सिर्फ उनका ही नाम हो सकता है लेकिन जहां तक भारत रत्न का सवाल है कोई क्रिकेटर इसका हकदार नहीं दिखाई देता. भारत रत्न किसी ऐसे व्यक्ति को दिया जाना चाहिए जिसने हर पहलू में देश के लिए अनुकरणीय योगदान दिया हो. सचिन ने खेल दुनिया में बहुत कुछ किया पर समाज के लिए उनके या किसी भी अन्य क्रिकेटर ने कभी कुछ किया हो ऐसा याद नहीं आता. क्रिकेट अन्य देशों के लिए भले ही एक खेल से ज्यादा कुछ न हो मगर भारत में यह किसी धर्म से कम नहीं. क्रिकेट के प्रति समर्पण और उन्माद का जो नजारा भारत में देखने को मिलता है वह कहीं और नहीं मिल सकता. क्रिकेट अगर यहां धर्म है तो क्रिकेटर भी किसी अवतार से कम नहीं. उन्हें यहां भगवान की तरह पूजा जाता है, उनकी मंगलकामना के लिए व्रत रखे जाते हैं, हवन किए जाते हैं. हां, उनके खिलाफ कभी-कभार नाराजगी जरूर झलक पड़ती है मगर वो भी क्षणिक भर से ज्यादा नहीं. ठीक वैसे ही जैसे कोई भक्त मनोकामना पूरी न होने पर थोड़ी देर के लिए तो मुंह फुला सकता है मगर हमेशा के लिए अपने भगवान से रूठे नहीं रह सकता. विश्वकप जैसे अहम् मुकाबलों में हारने के बाद भले ही उनके घरों पर पत्थर फेंके जाते हों मगर बांग्लादेश जैसी दोयम दर्जे की टीम को हराने के बाद कंधें पर भी उन्हें ही बिठाया जाता है. सही मायनों में कहें तो क्रिकेट शहर से लेकर गांव तक बच्चों से लेकर बूढ़ों तक देश को धर्म की भांति एक सूत्र में पिरोने का काम करता है. क्रिकेट और क्रिकेटरों का देश में एकक्षत्र राज है उनके आगे किसी दूसरे को तवाो दी गई हो ऐसा शायद ही कभी देखने-सुनने में आया हो. भले ही इस उपमहाद्वीप पर क्रिकेट में आए पैसे की बात सबसे अधिक होती है लेकिन सही मायने में देखा जाए तो केवल भारत ही कुबेर है. पिछली भारत-पाक सीरीज के वक्त पाकिस्तानी खिलाडी यह गुजारिश करते फिर रहे थे कि किसी भारतीय कंपनी के साथ करार करवा दो. उनकी कमाई का अंदाजा तो इससे ही लगाया जा सकता है कि साक्षात्कार चाहने वाले पत्रकारों से वह 100-200 डॉलर मांगने में भी गुरेज नहीं करते. पिछले दस सालों के दौरान क्रिकेट में इतना पैसा आया है कि इससे जुड़े लोगों से संभाले नहीं संभलरहा है. सिर्फ सचिन, सौरव और गांगुली ही नहीं धोनी-युवराज जैसे खिलाड़ियों की युवा ब्रिगेड भी करोड़ों में खेल रही है. कॉरपोरेट जगत के तकरीबन 60 फीसदी विज्ञापनों पर क्रिकेटरों का कब्जा है, इसके अलावा बोर्ड द्वारा दी जाने वाली रिटेनरशिप फीस से लाखों के वारे-न्यारे अलग हो जाते हैं.
धोनी एक फीता काटने के 20 लाख लेते हैं तो युवराज रैंप पर चलने को 40. क्रिकेट ने इन लोगों को इतना दिया है कि दोनों हाथों से लुटाने पर भी जेब खाली नहीं होने वाली. पर अफसोस कि दोनों हाथ से लुटाना तो दूर इनकी जेब से एक धेला तक नहीं निकलता. दुनिया के हर धर्म में परोपकार और सामाजिक दायित्व का तत्व विद्यमान होता है मगर जब बात हमारे क्रिकेटरों और क्रिकेट की आती है तो इसका साया तक उन पर नहीं दिखाई देता. देश की जनता से क्रिकेटरों को जो शानो-शौकत मिली है उसके बदले में वह कभी कुछ लौटाते नजर नहीं आते. पड़ोस में पाकिस्तान की ही अगर बात करें तो इमरान खान ने अपने सेलेब्रिटी स्टेटस की बदौलत ही कैंसर का एक बड़ा सा अस्पताल खड़ा कर डाला. आस्ट्रेलिया के स्टीव वॉ वर्षो से बच्चों के कल्याण के लिए कुछ न कुछ करते रहे हैं. ऐसे ही न्यूजीलैंड के क्रिस कैंस से लेकर टेनिस स्टार रोजर फेडरर तक हर कोई समाज के प्रति अपनी भूमिका पर खरा उतरा है. मगर लगता है हमारे क्रिकेटरों को इस बात से कोई सरोकार नहीं, उन्हें सरोकार है तो बस इस बात से कि कैसे कम से कम वक्त में ज्यादा से ज्यादा पैसे बटोरे जाएं. हमारे देश में सचिन तेंदुलकर भले ही एक-आध बार कैंसर पीड़ित बच्चों में खुशियां बांटते नजर आए हों पर बाकि खिलाड़ियों के पास तो शायद इतना भी वक्त नहीं. कहने का मतलब यह हरजिग नहीं है कि क्रिकेटर सबकुछ छोड़कर समाज सेवक बन जाएं, किसी सेलिब्रिटी के समाज कल्याण के कार्यो से जुड़ना उसके उद्देश्यों की प्राप्ति में प्रेरक होता है. बड़े नामों के साथ आने से न केवल मुद्दे सुर्खियों में रहते हैं बल्कि उन्हें आर्थिक सहायता का सहारा भी मिल जाता है. बॉलीवुड का ही अगर उदाहरण लें तो उसने समाजिक दायित्व का निर्वाहन करने में हमेशा मिसाले पेश की हैं. सुनील दत्त और नर्गिस का युद्ध के दिनों में सैनिकों का हौसला बढाना भला कौन भूल सकता है. सूनामी जैसी आपदाओं के वक्त भी क्रिकेटरों के हाथ भले ही न खुले हाें मगर बॉलीवुड कलाकार दिल खोलकर मदद के लिए तैयार रहे हैं. हालांकि यह बात अलग है कि उनकी कोशिशों पर रह-रहकर सवाल भी उठते रहे हैं. कोई इसे पब्लिसिटी स्ंटट कहता हैं तो कोई कुछ और. पर हमारे क्रिकेटर तो कभी भी कुछ ऐसा करने की जहमत नहीं उठाते जिससे वे इन सवालों में घिरें.
यह सिर्फ अकेले खिलाड़ियों की ही बात नहीं है, घर का बड़ा ही अगर नालायक हो तो फिर बच्चों के क्या कहने. दुनिया के सबसे अमीर बोर्ड का दर्जा पाने वाले बीसीसीआई का भी सामाजिक दायित्व से दूर का नाता नहीं है. भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड का सालाना कारोबार करोड़ों रुपए का है, वर्ल्ड कप के दौरान महज टीवी करार से ही उसने 1200 करोड़ से अधिक की कमाई की थी. मगर आज तक शायद ही कभी कोई ऐसी खबर सुनने में आई हो जब बोर्ड ने खुद आगे बढ़कर समाज के लिए कुछ किया हो. सिवाए बरसो-बरस आयोजित होने वाले एक-दो चैरिटी मैचों के. अक्सर सुनने में आता है कि फंला खिलाड़ी ने आर्थिक तंगी के चलते मौत को गले लगा लिया, इसका सबसे ताजा उदाहरण उत्तर प्रदेश का है, जहां आर्थिक बदहाली ने एक होनहार रणजी खिलाड़ी को जान देने पर मजबूर कर दिया. क्या बीसीसीआई का ऐसे खिलाड़ियों के प्रति कोई दायित्व नहीं . बोर्ड कतई चैरिटी न करे मगर इतना तो कर सकता है कि क्रिकेट मैच के टिकट ब्रिकी से होने वाली आय में से एक रुपया ऐसे खिलाड़ियों के कल्याण में लगा दे. देश के लिए कुछ करना तो बहुत दूर की बात है अपनी खिलाड़ी बिरादरी के लिए तो बोर्ड कुछ कर ही सकता है. क्या इतना बड़ा कारोबार और क्रिकेटरों की चमक-धमक महज मनोरंजन तक ही सीमित है. क्या बोर्ड और खिलाड़ियों का जेब भरने के अलावा कोई सामजिक दायित्व नहीं है, और अगर नहीं है तो फिर ऐसा क्रिकेट और क्रिकेटर किस काम के.
नीरज नैयर
09893121591

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