बुधवार, 7 मई 2008
जल संरक्षण की चुनौती
माइक पांडे
आज पूरे भारत में पानी की कमी पिछले 30-40 साल की तुलना में तीन गुनी हो गई है। देश की कई छोटी-छोटी नदियां सूख गई हैं या सूखने की कगार पर हैं। बड़ी-बड़ी नदियों में पानी का प्रवाह धीमा होता जा रहा है। कुएं सूखते जा रहे है। 1960 में हमारे देश में 10 लाख कुएं थे, लेकिन आज इनकी संख्या 2 करोड़ 60 लाख से 3 करोड़ के बीच है। हमारे देश के 55 से 60 फीसदी लोगों को पानी की आवश्यकता की पूर्ति भूजल द्वारा होती है, लेकिन अब भूजल की उपलब्धता को लेकर भारी कमी महसूस की जा रही है। पूरे देश में भूजल का स्तर प्रत्येक साल औसतन एक मीटर नीचे सरकता जा रहा है। नीचे सरकता भूजल का स्तर देश के लिए गंभीर चुनौती है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए की आजादी के बाद कृषि उत्पादन बढ़ाने में भूजल की महत्वपूर्ण भूमिका थी। इससे हमारे अनाज उत्पादन की क्षमता 50 सालों में लगातार बढ़ती गई, लेकिन आज अनाज उत्पादन की क्षमता में लगातार कमी आती जा रही है। इसकी मुख्य वजह है बिना सोचे-समझे भूजल का अंधाधुन दोहन। कई जगहों पर भूजल का इस कदर दोहन किया गया कि वहां आर्सेनिक और नमक तक निकल आया है। पंजाब के कई इलाकों में भूजल और कुएं पूरी तरह से सूख चुके है। 50 फीसदी परंपरागत कुएं और कई लाख ट्यूबवेल सुख चुके है। गुजरात में प्रत्येक वर्ष भूजल का स्तर 5 से 10 मीटर नीचे खिसक रहा है। तमिलनाडु में यह औसत 6 मीटर है। यह समस्या आंध्र प्रदेश, उत्तार प्रदेश, पंजाब और बिहार में भी है। सरकार इन समस्याओं का समाधान नदियों को जोड़कर निकालना चाहती है। इस परियोजना के तहत गंगा और ब्रह्मंापुत्र के अलावा उत्तार भारत की 14 और अन्य नदियों के बहाव को जोड़कर पानी को दक्षिण भारत पहुंचाया जाएगा, क्योंकि दक्षिण भारत की कई नदियां सूखती जा रही है।
इस परियोजना को अंजाम तक ले जाने के लिए 100 अरब डालर से लेकर 200 अरब डालर तक की आवश्यकता होगी। परियोजना के तहत लगभग 350 डैम, वाटर रिजर्व और बैराज बनाने होंगे। 12000 से लेकर 13000 किलोमीटर लंबी नहरे होगी, जिसमें प्रति सेकेंड 15 क्युबिक मीटर की गति से पानी का प्रवाह हो सकेगा। हमने लाखों साल से जमा भूजल की विरासत का अंधाधुन दोहन कर कितने ही जगहों पर इसे पूरी तरह से सुखा दिया। हमें यह भी याद रखना चाहिए कि जिन जगहों पर नदी के पानी को रोककर डैम, बैराज और वाटर रिजर्व बनाया जाता है वहां से आगे नदी का प्रवाह सिकुड़ने लगता है। भारत का एक तिहाई हिस्सा गंगा का बेसिन है। इसे दुनिया का सबसे अधिक उपजाऊ क्षेत्र माना जाता है, लेकिन इस नदी के ऊपर डैम बनने से यह क्षेत्र सिकुड़ता जा रहा है। गंगा की लगभग 50 सहायक नदियों में पानी का प्रवाह कम हो गया है। भारत की तीन प्रमुख नदियां-गंगा ब्रह्मपुत्र और यमुना लगातार सिकुड़ती जा रही हैं। दिल्ली में यमुना के पानी में 80 फीसदी हिस्सा दूसरे शहर की गंदगी होती है। चंबल, बेतवा, नर्मदा, गोदावरी और कावेरी जैसी अन्य नदियों में भी लगातार पानी कम होता जा रहा है। इससे निपटने के लिए नदियों को आपस में जोड़ने की परियोजना की चर्चा हो रही है, लेकिन पर्यावरणविद् और वैज्ञानिकों का मानना है कि ऐसा करने से पर्यावरण पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा, क्योंकि हर नदी में लाखों तरह के जीव-जंतु रहते हैं। हर नदी का अपना एक अलग महत्व और चरित्र होता है। अगर हम उसे आपस में जोड़ देंगे तो लाजमी है कि उन नदियों में जी रहे जीव-जंतु के जीवन पर विपरीत असर पड़ेगा। हम हिमालय क्षेत्रों के पानी को दक्षिण भारत में पहुंचा देंगे तो क्या इससे पानी की गुणवत्ता पर विपरीत प्रभाव नहीं पड़ेगा?
जब इस पानी को दक्षिण भारत ले जाया जाएगा तो कितने ही जंगल डूब जाएंगे। नदी जोड़ योजना की सबसे पहले बात 1972 में हुई थी, लेकिन आर्थिक कठिनाइयों के कारण इसे टाल दिया गया था। मेरा मानना है कि आर्थिक दृष्टि से यह योजना जायज है, पर इस योजना में बहुत सोच-समझकर कदम उठाने की आवश्यकता है, क्योंकि इससे कुदरत के चक्र को क्षति पहुंच सकती है। अगर हम अपने पूर्वजों के विरासत की ओर लौटे तो हम पानी की किल्लत को आसानी से पूरा कर सकते है। महाभारत में सरोवर की चर्चा है। उस जमाने में भी पानी को संचय करने की व्यवस्था थी। हमारे गांवों में तालाब-पोखर आज भी हैं। दिल्ली जैसे शहर में सैकड़ों तालाब थे। उसमें पानी जमा होता था और वहां से धीरे-धीरे रिस-रिस कर भूजल के स्तर को बनाए रखता था। हमने विकास की अंधी दौड़ में पोखरों को नष्ट कर मकान बना दिए, खेत बना दिए और उद्योग लगा दिए। दूसरी ओर भूजल का लगातार दोहन करते रहे। नतीजा आज हमारे सामने है। हम अपने पूर्वजों की जीवन शैली का अनुकरण जरूर करते है, लेकिन उनकी सोच को लेकर हम अनभिज्ञ है। हम सुबह-सुबह नहाकर सूर्य को जल जरूर चढ़ाते है, लेकिन इसके पीछे जो सोच है उसे समझने की कोशिश नहीं करते। वैदिक युग में सूर्य को जल चढ़ाते हुए प्रार्थना की जाती थी कि हे सूर्य भगवान, मैं आभारी हूं कि मुझ पर ऊर्जा, हवा और पानी की कृपा हुई। मैं आप तीनों का आदर करता हूं।
विडंबना यह है कि आज हम हवा और पानी को लेकर संवेदनशील नहीं हैं। हमारी हवा और पानी प्रदूषित हो चुका है। हमें यह सोचना चाहिए कि हम कैसी प्रगति की ओर बढ़ते जा रहे है? हमें यह नहीं भूलना चाहिए जब हम नदियों को आपस में जोड़ेंगे तो एक नदी का जहरीला पानी दूसरी नदी में भी जाएगा। ऐसा भी हो सकता है कि कोई नदी सूख जाए। बेहतर हो कि इन्हीं पैसों को खर्च कर परंपरागत स्त्रोतों को फिर से जिंदा किया जाए। जल संरक्षण में पेड़ भी महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। पेड़ों के कारण जमीन में नमी बरकरार रहती है। क्या यह सही नहीं होगा कि नदियों को आपस में जोड़ने के अलावा दूसरे विकल्प तलाशे जाएं? जरूरत तो सिर्फ इच्छाशक्ति की है।
[माइक पांडे, लेखक जाने-माने पर्यावरण विद् हैं]
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आज का सच
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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