शनिवार, 19 अप्रैल 2008

ओपन बुक एक्जाम : एक सफल प्रयोग


डॉ. महेश परिमल
एक बार फिर परीक्षा का मौसम आ धमका है। हाई स्कूल और हायर सेकेण्डरी की परीक्षाएँ शुरू भी हो गई हैं। इसी के साथ शुरू हो गया है, विद्यार्थियों का तनाव। उनके इस तनाव को दूर करने के लिए कई राज्यों में हेल्प लाइन सेवा शुरू की गई है। एक तरफ वर्ष भर का आकलन केवल तीन घंटे में करने की प्रवृत्ति और दूसरी ओर हेल्प लाइन। कैसा मजाक है विद्यार्थियों के साथ? शिक्षा पर हर वर्ष करोड़ों का बजट बनाने वाली सरकारें शायद ही कभी इस दिशा में एक विद्यार्थी की नजर से देखती होंगी।
कभी हेल्प लाइन पर पूछने वाले प्रश्नों पर गंभीरता से सोचने की कोशिश किसी पालक या फिर शिक्षाविद् ने की है? मासूमों के प्रश्न भी गंभीरता लिए हुए हैं। सर, क्या आप बता सकते हैं कि परीक्षा के समय ही मुझे अधिक नींद क्यों आती है? सर, खूब पढ़ता हूँ किंतु परीक्षा में सब भूल जाता हूँ। सर, मुझे अपना पाठ ठीक से याद क्यों नहीं होता? सर, इन दिनों मुझे कमजोरी क्यों आती है? सर, मेरे माता-पिता ने मुझे बड़े अरमान से पढ़ाया है, अब परीक्षा के समय मैं अपने आप को कमजोर मान रहा हूँ, यदि मैं उनकी अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतरा, तो मुझे ही काफी दु:ख होगा। सर, मेरा आत्मविश्वास डोल रहा है, इस किस तरह से नियंत्रित रखूँ? ये सारे सवाल बरसों से चली आ रही देश की शिक्षा पध्दति पर सवालिया निशान लगाते हैं। समझ में नहीं आता कि हर बात पर विदेश की नकल करने वाले, विदेशी वस्तुओं और नियम कायदों की दुहाई देने वाले यह क्यों भूल जाते हैं कि आजकल वहाँ ओपन बुक एक्जाम होने लगे हैं। क्या इस दिशा में हमारे शिक्षाविद् कभी कुछ सोच पाएँगे?
जिस तरह से एक न्यायाधीश के सामने फैसले का आधार केवल गवाह होता है, ठीक उसी तरह एक परीक्षक के सामने विद्यार्थी? की उत्तर पुस्तिका ही होती है, उसी के आधार पर वह परीक्षार्थी का मूल्यांकन करता है। ऐसे में उसके सामने कोई विकल्प नहीं होता कि बच्चो का मानसिक स्तर कैसा है? उसके सामने तो उत्तर-पुस्तिका होती है। ऐसे में किसी ने यदि पूरा रट कर लिख लिया हो, या फिर नकल करके लिख दिया हो, तो उसे अच्छे अंक देने ही पड़ते हैं। इस स्थिति में उस परीक्षार्थी की कोई अहमियत नहीं होती, जिसने अपने उत्तर पूरी तरह से अपनी समझ से लिखे हों, अपनी तर्क शक्ति के सामने उसने कई उत्तर यदि छोटे भी लिखे हों, तो परीक्षक के लिए वह मामूली बात है। समझबूझ से उत्तर लिखने वाले परीक्षार्थी ने भले ही वर्ष भर सभी छोटी परीक्षाओं में अच्छे परिणाम दिए हों, पर ऐन परीक्षा के समय उसने अपनी तर्क शक्ति के आधार पर उत्तर लिखें हों, तो उसकी इस प्रतिभा से परीक्षक संतुष्ट नहीं होता। क्योंकि परीक्षक के सामने प्रश्न पत्र के अलावा उत्तरों का भी एक मापदंड होता है, जिसमें तर्क से लिखे गए उत्तरों का कोई महत्व नहीं होता। क्या ऐसे में यह कल्पना की जाए कि बिना रटे या नकल किए अपनी समझबूझ से उत्तर देने वाले विद्यार्थी को आखिर कम अंक क्यों मिलते हैं?
आजकल जिस तरह के प्रश्नपत्र तैयार हो रहे हैं, उसके अनुसार विद्यार्थी के लिए अनुत्तीर्ण होना तो मुश्किल है, किंतु अधिक और अच्छे अंक लाना और भी मुश्किल है। इसमें तर्क शक्ति से हल किए जाने वाले सवाल अधिक होते हैं। फिर भी वर्र्ष भर की पढ़ाई का मूल्यांकन केवल तीन घंटों में किसी भी तरह संभव नहीं है। अक्सर यही होता है कि परीक्षा के समय विद्यार्थी तनावग्र्रस्त हो जाते हैं। परीक्षा का भूत उनके सर पर सवार हो जाता है। परीक्षा को लेकर हमारे देश में शुरू से ही एक डर पैदा किया जाता है। उससे निपटने के गुर नहीं बताए जाते हैं। पूरा वर्ष बरबाद होने की दुहाई दी जाती है। सीख, नसीहतें और समझ के सारे रास्ते पढ़ाई से शुरू होते हैं और पढ़ाई पर ही खत्म होते हैं। ऐसे में विद्यार्थियों के पास केवल तनाव के और कुछ भी नहीं रहता, पर पालक इसे समझ नहीं पाते हैं।
किसी भी विद्वान को अपने पास बिठा लें और उसे किसी एक विषय पर कुछ लिखने को कहा जाए, निश्चित रूप में उसे लिखने के लिए संदर्भों की आवश्यकता होगी। फलस्वरूप उनके द्वारा कई पुस्तकों की माँग की जाएगी, उन पुस्तकों का अध्ययन करने के बाद ही वह विद्वान कुछ लिख पाएगा, निश्चित ही यह समय तीन घंटे से अधिक ही होगा, तो फिर 15 से 17 वर्ष के विद्यार्थियों से यह कैसे अपेक्षा की जाती है कि वह केवल तीन घंटे में साल भर का पढ़ा हुआ संक्षेप में लिखे? विद्यार्थियों की ऐसी दशा देखकर ही अमेरिका में अब ओपन बुक एक्जाम का प्रचलन शुरू किया गया है। इससे बच्चों में रटने की कुप्रवृत्ति पर काफी हद तक अंकुश लगेगा, कई स्थानों पर तो बच्चों ने रटना ही छोड़ दिया है। अब तक होता यह था कि रटने वाले बच्चो रटकर तो परीक्षा में प्रश्नों का हल कर लेते थे, पर ऐसे बच्चों का विजन काफी संकीर्ण हुआ करता था। ओपन बुक एक्जाम से बच्चों में रटने की प्रवृत्ति अब न के बराबर है। अब उनका विजन भी विस्तृत हो गया है। यह विजन परीक्षा के प्रश्नों को गहराई से समझने और उसके उत्तर लिखने में काम आता है।

अब जो नए प्रकार के प्रश्नपत्र तैयार हो रहे हैं, उसमें ऐसे सवाल होते हैं, जिनके उत्तर तो पाठय पुस्तकों में होते ही नहीं, बच्चों को उसके उत्तर अपनी तर्क शक्ति के आधार पर लिखने होते हैं। ऐसे में बच्चों का रटंत तोता होना उनके लिए हानि का सौदा होगा। यदि विद्यार्थियों की ओपन बुक एक्जाम होने लगेगी, तो अनुत्तीर्ण होने वाले विद्यार्थियों की संख्या में कमी आएगी। उत्तीर्ण होने के लिए अभी जो 35 प्र्रतिशत अंक अनिवार्य माने जाते हैं, उसे बढ़ाकर 60 या 75 प्रतिशत किया जा सकता है। अब सवाल यह उठता है कि बोर्ड में जो 90 या 95 प्रतिशत विद्यार्थी उत्तीर्ण होते हैं, तो उन सबको कॉलेज में किस तरह से प्रवेश दिया जाए? इसके लिए यह उपाय किया जा सकता है कि सभी कॉलेजों को अपने यहाँ प्रवेश देने के लिए एक छोटी सी प्रवेश परीक्षा लेनी चाहिए, जिसमें विद्यार्थियों के आई क्यू की जानकारी प्राप्त हो सके। इस परीक्षा से विद्यार्थी की प्रतिभा का अनुमान हो जाएगा।
आज विदेशों के कई विश्वविद्यालयों में ओपन बुक एक्जाम लगातार लोकप्रिय हो रहे हैं, इससे विद्यार्थियों में रटने की प्रवृत्ति खत्म हो रही है और उनके तनाव लगातार कम हो रहे हैं। अब उनमें भूलने का डर समाप्त हो गया है। जब विदेशों में ऐसा हो सकता है, तो फिर भारत में ऐसा क्यों नहीं हो सकता? हमारे देश में आज भी डराने वाली परीक्षाओं का चलन है। एक तरफ ऐसी डरावनी परीक्षा और दूसरी तरफ हेल्प लाइन की सेवा, कैसा विरोधाभास है? यदि सरकार सचमुच ही बच्चों की पढ़ाई की दिशा में कुछ कर गुजरने का सोचती है, तो हमारे देश में भी ओपन बुक एक्जाम का चलन शुरू किया जाए, ताकि बच्चें तनावमुक्त होकर बिना किसी डर के परीक्षा दे सकें।
डॉ. महेश परिमल

2 टिप्‍पणियां:

  1. मैने सुना था कि इस दिशा में कुछ पहल की जा रही है भारत में भी मगर कहाँ-यह ज्ञात नहीं.

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  2. डॉ. महेश परिमल जी, मेने ऎसे पढे लिखो को देखा जिन्हे शायद अकल उतनी नही जितनी बडी उन के पास डिगरी हे, क्या कारण हे बस रटा मार कर या नकल मार कर अच्छे नम्बरो मे पास हो गये,बाकी आप का लेख हमेशा की तरह से कुछ देने वाला ही हे, कुछ सोचने पर मजबुर करते हे..

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