मंगलवार, 5 फ़रवरी 2008

परीक्षा बच्चों की कसौटी पालकों की


डा. महेश परिमल
रोज की तरह उस रोज भी मंदिर के सामने से गुजरना हुआ, लेकिन यह क्या! उस दिन तो मंदिर में अपेक्षा से अधिक भीड़ दिखाई दी. इस भीड़ में युवा और किशोर चेहरे अधिक थे. समझ में नहीं आया कि बात क्या है. इन बच्चों और युवाओं में अचानक भक्ति-भाव कैसे जाग गया. क्या इन पर कोई मुसीबत आ पड़ी है. घर आया तो पता चला कि मेरा बेटा भी मंदिर गया हुआ था. तो क्या भक्ति-भाव का रेला घर तक आ पहुँचा है? मंदिर से आकर बेटे ने अपनी स्कूल डायरी में हस्ताक्षर करने को कहा. तब देखा कि ये तो उसके परीक्षा का टाइम-टेबल है. तब समझ में आया कि मंदिर में अचानक भीड़ क्यों बढ़ गई है.
सचमुच आज परीक्षा के बुखार से हर कोई तप रहा है. इससे बच्चे तो बच्चे, बल्कि पालक भी जूझ रहे हैं. हालत यह हो गई है कि जिस तरह वन डे क्रिकेट में अंतिम ओवर में जो एक तनाव होता है, वही तनाव आजकल बच्चों में देखा जा रहा है. हमारे देश की टीम जीत जाएगी, इसका विश्वास होने के बाद भी टीवी के सामने से हटने की इच्छा नहीं होती, उसी तरह बच्चा परीक्षा में पास हो जाएगा, इसका विश्वास होने के बाद भी उसे कई तरह की हिदायतें हर पल मिलती रहती हैं. बच्चों को चारों तरफ से 'पढ़ने बैठो, लिख-लिख कर याद करो, न आता हो, तो पूछ लो,' आदि सलाहें मिलती रहती हैं. इन बच्चों की दशा ऐसी होती है कि कुछ न पूछो. हर कोई उनसे पढ़ाई के बारे में ही बात करता है. घर से बाहर निकलते ही दस में से आठ लोग तो ऐसे ही मिलते हैं, जिनके पास परीक्षा में अच्छे अंक लाने के गुर होते हैं. अब यह बात अलग है कि उस गुर को उन्होंने कितना अपनाया और कितने अच्छे अंक प्राप्त किए, यह पूछने वाला अब कोई नहीं है.
हमारे देश में परीक्षा का हौवा दिनों-दिन बढ़ता जा रहा है. इसे हम सभी अच्छी तरह से समझते हैं कि मात्र तीन घंटे में कभी किसी की प्रतिभा का मूल्यांकन नहीं किया जा सकता, फिर भी हम ही परीक्षा के इस हौवे को अपने से अलग नहीं कर पाए हैं. इसे दूर करने का भी कोई उपाय नहीं किया, बल्कि परीक्षा आते ही हम भी बच्चों के साथ इस भूत से लड़ने के लिए कमर कस लेते हैं. बच्चों के लिए उसके भोजन की खुराक का ध्यान रखना, उसके पाठयक्रम के लिए पुराने प्रश्न-प्रत्र की व्यवस्था करना, डाक्टर के पास उसका चेकअप कराना, उसके लिए बादाम लेकर रखना, घर में पढ़ाई का माहौल देना आदि कवायद करने में हमें कोई संकोच नहीं होता. इतना ध्यान केवल परीक्षा के समय ही रखा जाता है, यदि इन बातों का ध्यान शुरू से ही रखा जाता, तो आज यह नौबत ही नहीं आती.
परीक्षा के इस दौर में आजकल अखबारों में तनाव दूर करने के कई उपायों की जानकारी दी जा रही है. कभी किसी चिकित्सक की समझाइश होती है कि अमुक टेबलेट खाने से अच्छी नींद आती है या फिर तनाव दूर करने में सहायता मिलती है. कभी कोई मनोचिकित्सक अपनी बात बताते हैं. कभी मेधावी छात्र-छात्राएँ अपना अनुभव सुनाते हैं. इन सबके बाद भी बच्चों का तनाव दूर होता है, यह कहना नामुमकिन है. केवल पालक ही नहीं बल्कि शिक्षकों की ओर से भी कहा जाता है कि यदि उनके अंक कम आए, तो अगले वर्ष उन्हें पसंद का विषय चुनने में काफी परेशानी हो सकती है. यदि अच्छे से परिश्रम नहीं किया गया, तो संभव है वे अपने लक्ष्य की ओर न बढ़ पाएँ. इस तरह से बच्चे को एक स्ंप्रिग की तरह चारों तरफ से ख्ािंचा जाता है. यहाँ हम यह भूल जाते हैं कि स्ंप्रिग को जितनी तेजी से दबाया जाएगा, वह उतनी ही तेजी से उछल पड़ेगी.
हमने अपने जीवन में देखा होगा कि कई विद्यार्थी खूब मन लगाकर पढ़ते हैं, पर ऐन प्रश्न पत्र सामने आते ही सब कुछ भूल जाते हैं. कुछ ऐसे भी बच्चों को देखा होगा, जो पढ़ते तो कम हैं, पर उनके अंक हमेशा अच्छे आते हैं. अब सारी परीक्षाएँ परिणामलक्ष्यी बन गई हैं, फलस्वरूप रटने और बार-बार लिखने पर अधिक जोर दिया जाता है, जो ऐसा कर पाते हैं,उनके परिणाम भी अच्छे आते हैं. इसलिए टयूशन में पुराने पेपर को हल करने के लिए कहा जाता है. कई स्थानों पर तो एक ही प्रश्न को 50 बार लिखवाकर याद करवाया जाता है. इस तरह से विद्यार्थी करीब-करीब टूट जाते हैं. फिल्में न देखने, टीवी न देखने, बाहर घूमने न जाने, दोस्तों के साथ फोन पर अधिक बात न करने, इंटरनेट को हाथ न लगाने आदि हिदायतों के बीच विद्यार्थी उलझन में पड़ जाते हैं. वे चाहते हैं कि अब जितनी जल्दी हो सके, परीक्षा निबट जाए, तो ही अच्छा.
मनोचिकित्सक बार-बार कहते हैं कि परीक्षा के समय बच्चों को पढ़ाई से थोड़ी राहत दी जाए, इसका समर्थन कई शोध भी करते हैं, पर आज के बच्चे परीक्षा को लेकर इतने भयभीत हैं कि इन दिनों वे परीक्षा के सिवाय और कुछ सोच ही नहीं सकते, क्योंकि कई हिदायतें और प्रतिबंध उनका लगातार पीछा करते रहते हैं. स्पर्धा के इस युग में शिक्षा का कोई विकल्प नहीं है. जो विद्यार्थी शांत मन से, पूरे मनोयोग से पढ़ाई करते हैं, वे परीक्षा में सफल हो जाते हैं, जबकि कई ऐसे भी होते हैं, जिन्हें धक्का मार मार कर आगे बढ़ाना पड़ता है.
आजकल गली-मोहल्लों में ढेर सारे कोचिंग क्लासेस खुल गए हैं. यहाँ पहुँचने वाले पालकों को पहले तो खूब आश्वासन दिया जाता है कि हमारे यहाँ पढ़ने वाले छात्र निश्चित रूप से 65-70 प्रतिशत अंक ले आएँगे. इस आश्वासन के बाद वहाँ पूरे साल की फ ीस ले ली जाती है, फिर छह माह बाद यह कहा जाता है कि छात्र ने हमारे कहे अनुसार मेहनत नहीं की, इसलिए उसके अंक कम आएँगे. अंत में होता यह है कि विद्यार्थी बड़ी मुश्किल से ही पास हो पाता है. कई पालक अव्यावसायिक शिक्षकों के मायाजाल में फँस जाते हैं. ये लोग सुबह तो कहीं नौकरी करते हैं और शाम को घर पर ही बच्चों को पढ़ाते हैं. इनका मुख्य उद्देश्य धन कमाना होता है. अक्सर होता यह है कि परीक्षा के दिनों में ये पढ़ाना छोड़ देते हैं और विद्यार्थी का भविष्य अंधकारमय बना देते हैं.
परीक्षा के इन दिनों में बच्चों को थोड़ी सी स्वतंत्रता भी देनी चाहिए, इसमें उन्हें घूमने देने या फिर स्वीमिंग के लिए भी समय देना चाहिए. इससे वे अपने आप को तरोताजा महसूस करेंगे, और अपनी पढ़ाई में मन लगाएँगे. पालक इन दिनों पहले स्वयं को व्यवस्थित करें और बच्चों को बताएँ कि परीक्षा की यह घड़ी उनके जीवन में बार-बार आएगी, इसका वे पूरी सजगता के साथ मुकाबला करेंगे, तो कभी विफल नहीं होंगे. उन्हें यह समझाया जाए कि विफलता ही सफलता की सीढ़ी है. विफलता हमें अधिक सतर्क बनाती है. इससे घबराना नहीं चाहिए. हर सफल व्यक्ति कभी न कभी विफल होता ही है. इसका आशय यह नहीं कि विफल व्यक्ति सब कुछ हार गया. इस तरह की हल्की-फुल्की शिक्षाओं और शरारतों के साथ यदि बच्चे को परीक्षा के लिए तैयार किया जाए, तो वह तनावमुक्त होकर परीक्षा में शामिल होगा और अच्छा प्रदर्शन करेगा, यह तय है.
डा. महेश परिमल

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