शुक्रवार, 1 फ़रवरी 2008

रीमेक से झाँकती सच्चाई


डॉ. महेश परिमल
आजकल रीमेक का जमाना है, हर तरफ केवल रीमेक की ही चर्चा है। चाहे वे फिल्मी गाने हों या फिर फिल्में ही क्यों न हों, लोग रीमेक की बातें करते हैं। इस पर अलग-अलग तरह के बयान भी रोज आने लगे हैं, इन बयानों से विवाद भी बढ़ने लगा है। आश्चर्य इस बात का है कि बयानवीर अपना बयान रोज ही बदल रहे हैं, इससे विवादों पर अंकुश नहीं लग पा रहा है। इतना कुछ होने के बाद भी न तो फिल्में बनना कम हो रही हैं और न ही फिल्मी गीतों के रीमेक पर रोक लग रही है। रीमेक होना चाहिए या नहीं, यह तो एक अलग ही विचार का बिंदु हो सकता है, लेकिन आजकल रीमेक के नाम पर जो कुछ भी बयान आ रहे हैं, वे इतने अधिक चौंकाने वाले और विवादास्पद हैं कि तरस आता है इन बयानवीरों पर।
अभी पिछले दिनों ही स्वर साम्राज्ञी लता मंगेशकर ने कहा था कि रमेश सिप्पी की सुपरहिट फिल्म शोले का रीमेक नहीं बनना चाहिए। दूसरी ओर रेखा के प्रशंसकों ने भी एक शगूफा छोड़ा, जिसमें कहा गया है कि ऐश्वर्या कभी भी रेखा की तरह उमराव जान नहीं बन सकती। फिल्म देखकर लोगों का यह कहना था कि ऐश्वर्या उमराव जान तो बन सकती है, पर उमराव जान 'अदा' तो केवल रेखा ही बन सकती है। इन सबके बीच लता जी की ही छोटी बहन आशा भोंसले ने रीमेक के संबंध में एक अलग ही राय दी। उनका कहना है कि रीमेक क्यों नहीं बने, अवश्य ही बनना चाहिए। शोले में पंचम याने राहुल देव बर्मन का गाया गीत 'महबूबा-महबूबा' को कोई दूसरा गाकर बिगाड़ दे, उससे अच्छा यही है कि उस गीत को मैं ही गाऊँ। फिल्म सर्जक यदि प्रतिभावान है, तो वह एक ही कहानी पर दो-तीन फिल्में तो बना ही सकता है। वह सफल भी हो सकती है। महबूब खान की विश्व प्रसिध्द फिल्म 'मदर इंडिया' उन्हीं ही बनाई फिल्म 'औरत' का ही रीमेक थी। औरत यदि हिट हुई, तो मदर इंडिया सुपरहिट। इस फिल्म की एक खासियत यह थी कि सन् 1940 में बनी औरत में जमींदार की भूमिका कन्हैया लाल ने निभाई थी, उसके बाद जब यही फिल्म मदर इंडिया के नाम से बनाई गई, तो महबूब खान ने जमींदार की भूमिका के लिए कन्हैया लाल को ही चुना। इसी तरह मुगले आजम और अनारकली की कहानी करीब-करीब एक होने के बाद भी दोनों ही फिल्में हिट रहीं।
राजकपूर और नरगिस की हिट फिल्म 'चोरी-चोरी' के गाने बहुत ही मशहूर हुए थे, आज भी संगीत स्पर्धा में युवा इस फिल्म के गीतों को गाने में अपनी शान समझते हैं। एक अँगरेजी फिल्म 'इट हेपंड इन वन नाइट' का हिंदी रुपांतरण ही थी फिल्म चोरी-चोरी। इसी फिल्म का रीमेक महेश भट्ट ने बनाया 'दिल है कि मानता नहीं', यह फिल्म भी हिट रही। किसी भी फिल्मकार को किसी भी कहानी पर फिल्म बनाने का अधिकार है। हर कोई अपने ही ढंग से अपनी कहानी कहता है। अब शरतचंद्र चटर्जी की देवदास को ही ले लिया जाए। उनके उपन्यास पर तीन बार इसी नाम से फिल्म बन चुकी है, तीनों ही बार फिल्म हिट रही। पहली बार कुंदन लाल सहगल को लोगों ने सराहा, दूसरी बार दिलीप कुमार को लोगों ने हाथों-हाथ लिया और तीसरी बार शाहरुख खान को लोगों ने शीर्ष पर पहुँचा दिया। याने कि तीनों बार इस नाम की फिल्म सुपर-डुपर हिट रही। कहानी में निर्माताओं ने अपने हिसाब से बदलाव अवश्य लाया, जो समय की माँग थी। कहते हैं कि देवदास में संजय लीला भंसाली ने अपने बचपन की न जाने कितनी ही घटनाओं को चित्रित किया है, पिता और पुत्र के बीच के वैचारिक द्वंद्व को फिल्म में उतारा है। शरत बाबू यदि आज जीवित होते, तो भंसाली के देवदास को शायद ही स्वीकार कर पाते।
डॉन की रीमेक बनी और रीलीज भी हो गई। इस फिल्म को फिर से बनाने के पीछे यही उद्देश्य है कि यह फिल्म आज की पीढ़ी को ध्यान में रखकर बनाई गई है। पुराने लोगों को यह फिल्म इसलिए अच्छी नहीं लगेगी, क्योंकि इसके पीछे उनके दिलो-दिमाग में पुरानी डॉन ही हावी होगी। हाँ आज के युवाओं को यह फिल्म अच्छी लग सकती है, क्योंकि उसे आधुनिकता के मसाले का छौंक दिया गया है। डॉन में पुरानी फिल्म के तीन गाने लिए गए हैं, लेकिन इसमें 'खई के पान बनारस वाला' गीत के बारे में यह बता दिया जाए कि यह गीत मूल रूप से देवानंद की फिल्म बनारसी बाबू के लिए लिखा गया था, लेकिन उस गाने के लटकों-झटकों को देव साहब स्वीकार नहीं कर पा रहे थे, इसीलिए यह गीत बनारसी बाबू में नहीं लिया गया। पर जब डॉन बन चुकी थी, तब फिल्म की ट्रायल देखकर पंडित जी याने मनोज कुमार ने कहा कि इंटरवल के बाद फिल्म बहुत ही फास्ट हो जाती है, इसलिए एक गीत होना चाहिए और फिल्म में खई के पान बनारस वाला गीत डाला गया। इस गीत के कारण ही उत्तर भारत में यह फिल्म खूब चली। शादी समारोहों में यह गीत अनिवार्य रूप से बजने लगा था।


अब आते हैं रामगोपाल वर्मा के शोले पर। यह फिल्म बनने के पहले से ही विवादास्पद हो गई। अभी इसकी शूटिंग शुरू ही नहीं हुई थी कि इसके नाम और अधिकार को लेकर मामला अदालत तक पहुँच गया। अब काफी कुछ बदलाव के साथ इसकी शूटिंग शुरू कर दी गई है। इस पर भी रोज नए-नए बयान जारी हो रहे हैं। इस पर सबसे अच्छी बात यही रही कि गब्बर सिंह की भूमिका अमिताभ जी को पहले से ही प्रिय थी। फिल्म परवाना और गहरी चल में विलेन का रोल करने वाले अमिताभ यदि उस समय यह रोल कर लेते, तो आज वे सफल नायक के बजाए सफल विलेन के रूप में अधिक जाने जाते, पर उस रोल के लिए तो शायद अमजद खान ही बने थे, अपने गर्दिश के दिनों में इस भूमिका को करते हुए उन्होंने अपनी प्रतिभा ही नहीं, बल्कि अपनी जान भी उस किरदार में डाल दी थी। उसके बाद वे इस सदी के सबसे बड़े विलेन बन गए। केवल यही एक फिल्म उनके जीवन की अन्य फिल्मों पर भारी पड़ती है।
कुछ भी हो यदि हमारे फिल्मकारों में हिम्मत है, तो उन्हें मौलिक विषयों पर फिल्मों का निर्माण करना चाहिए। वही घिसी-पिटी पुरानी फिल्मों और विदेशी फिल्मों की नकल करते हुए आखिर वे कब तक दर्शकों के साथ धोखा करते रहेंगे। फिल्म को फिल्म ही रहने दिया जाए, इसे रीमेक का नाम न दिया जाए, तो ही बेहतर होगा। हिट फिल्मों का पुनर्निमाण यह बताता है कि फिल्मकार उसे दोहराना चाहता है। उसमें यदि हिम्मत हो, तो पुरानी फ्लाप फिल्मों का रीमेक बनाए, क्योंक फिल्म फ्लाप क्यों हुई, यह तो सभी बताते हैं, पर फिल्म हिट क्यों हुई, इस पर कोई टिप्पणी देना नहीं चाहता। कई बार अच्छे फिल्मकारों की बेहतर अभिनेताओं वाली फिल्म भी धराशायी हो जाती है और कई बार नए फिल्मकार की एकदम ताजा अभिनेताओं को साथ लेकर बनाई गई फिल्म हिट हो जाती है। कौन-सी फिल्म हिट होगी, यह पहले से कोई कह नहीं सकता। अच्छे-अच्छे समीक्षकों की राय कई बार टाँय-टाँय फिस्स हो जाती है। कोई भी यह दावा नहीं कर सकता कि यह फिल्म निश्चित रूप से हिट होगी। अभिनय के नाम पर कई राष्ट्रीय पुरस्कार जीतना अलग बात है और अभिनय के कारण ही लोकप्रियता प्राप्त करना अलग बात है। ओमपुरी को अमिताभ बच्चन से अधिक राष्ट्रीय पुरस्कार मिले हैं, पर कितने लोग इसे जानते हैं? सत्यजित राय की अधिकांश फिल्मों को पुरस्कार मिले हैं, तब क्यों नहीं, उनकी फिल्मों का रीमेक बनता? सभी जानते हैं कि उनकी फिल्मों को पुरस्कार नहीं चाहिए, उन्हें तो दर्शकों का प्यार चाहिए, दर्शकों का प्यार याने बॉक्स आफिस द्वारा फिल्म को अच्छी करार देना। हर फिल्मकार की चाहत यही होती है कि उनकी फिल्म बॉक्स ऑफिस हिट हो जाए, पर कितनों की चाहत को दर्शकों का प्यार मिलता है? अंत में यही कि फिल्मों को रीमेक का नाम न दिया जाए, उसे एक संपूर्ण और उद्देश्यपरक फिल्म बनाकर दर्शकों के सामने प्रस्तुत किया जाए, फिर देखो, दर्शक उसे किस तरह से हाथो-हाथ लेते हैं।
डॉ. महेश परिमल

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