शनिवार, 19 जनवरी 2008

एक अकेले में भी है दम


डॉ. महेश परिमल
इस धरती पर साँस लेने वाले हर आदमी ने फुरसत के क्षणों में एक बार तो यह अवश्य सोचा होगा कि आखिर इस धरती पर उसका क्या महत्व है? क्या उसके होने न होने से इस संसार में कोई अंतर आएगा? आखिर इस धरती पर वह क्यों आया? किसलिए आया? किसके लिए आया? ये सभी क्या, क्यों, कैसे, किसलिए के प्रश्जाल में एक बार तो व्यक्ति अवश्य उलझा होगा। हो सकता है कभी ये प्रश् उसके मन में निराशा लाते हों और उसमें जीवन के प्रति हताशा के भाव भरते हों, किंतु ये भी हो सकता है कि ये ही प्रश् उसके मन में कभी आशा का संचार भी करते हों। यदि सचमुच आशा का स्रोत फूटता है, तो यह दार्शनिकता व्यक्ति के जीवित होने का संकेत है, उसके जीवन जीने का संकेत है और यदि इसके विपरित केवल निराशा ही घेरे रहती है, तो यह मात्र उसके जिंदा रहने का ही संकेत है, जो कि पूर्ण रूप से गलत है। इसलिए अपने आप से वादा करें कि आप अपने आपको कभी अकेला महसूस कर अपने महत्व को भूलाएँगे नहीं। यह सच है कि एक अकेले व्यक्ति का प्रत्यक्ष रूप से संसार में कोई महत्व नहीं होता, किंतु वह अप्रत्यक्ष रूप से संसार का एक हिस्सा है। संसार के लिए भले ही उसका महत्व न हो, किंतु जिन लोगों से वह जुड़ा हुआ है, उनके लिए तो उसका विशेष महत्व है।
एकांत में अपने भीतर सकारात्मक विचारों को पैदा करना ही एक बड़ी उपलब्धि है। याद रखें जो व्यक्ति ये समझता है कि मैं खूब महत्व का हूँ, वही व्यक्ति दूसरों के लिए महत्व का बन सकता है। सबसे बड़ी बात यह है कि आप अपने आपके लिए कितने महत्व के हैं? प्रत्येक व्यक्ति को यह सोचना चाहिए कि उसके भीतर ऐसा कुछ है, जिसके दम पर वह इस दुनिया में बहुत कुछ कर सकता है। यदि आप स्वयं ही अपने महत्व को नहीं समझेंगे, तो कोई दूसरा आपके महत्व को कैसे जानेगा और क्यों कर जानेगा?
इस दुनिया को महान व्यक्तियों की जरूरत होती है, लीडरों की जरूरत होती है। उसके पीछे चलने वालों की कमी नहीं है। इस दुनिया में ऐसे बहुत से लोग मिल जाएँगे, जिन्होंने अपना काम अकेले ही शुरू किया था, तब उन्होंने ये नहीं सोचा था कि उन्हें महान व्यक्ति का दर्जा मिल जाएगा। बस उन्हें अपने आप पर विश्वास था कि वे कुछ ऐसा कर पाएँगे, जिसकी इस दुनिया को जरूरत है और उनका यह विश्वास जीत गया। इस जीते हुए विश्वास ने ही उन्हें महानता दिलवाई। इतिहास गवाह है कि विश्व के जितने भी महान पुरूष हुए हैं, वे सभी शुरूआत में बहुत ही साधारण थे। ये सभी अपने कार्यो से एवं महेनत से महान बने हैं।
कोई रातोंरात कुछ नहीं मिल जाता। भाग्य के पौधे को अपनी मेहनत के पसीने से सींचा जाता है, तभी उस पर सफलता का फूल खिलता है। आप अपने आपको बदल दें, फिर पूरी दुनिया अपने आप ही बदल जाएगी। प्राय: लोगों की मानसिकता यह होती है कि वे सोचते हैं कि कोई नई शुरूआत करे, तो हम उससे जुड़ जाए, किंतु वे ऐसा नहीं सोचते कि वे स्वयं शुरूआत करें और लोग उनसे जुड जाए। ऐसा विचार करने वाले बहुत कम लोग होते हैं। यह मनुष्य को खुद को तय करना होता है कि उसे क्या करना है, लोगों से जुड़ना है या लोगों को अपने साथ जोड़ना है। किसी का अनुसरण करते हुए आगे बढ़ना है या खुद ऐसी राहों पर आगे बढ़ना है, जहाँ लोग उसका अनुसरण करे। ऐसा फैसला जब व्यक्ति कर लेता है, तभी उसके महान और साधारण होने की शुरूआत हो जाती है।
अभी दो महीने पहले बंगलादेश के मोहम्मद युनुस को कोई पहचानता नहीं था। उन्हें जब नोबल पुरस्कार देने की घोषणा हुई तो सारी दुनिया को लगा कि आखिर ये कोन है? दुनिया के गरीब और अविकसित राष्ट्र बंगलादेश में मोहम्मद युनुस ने जब गरीब लोगों के लिए काम करना शुरू किया, तब उसे स्वयं को भी यह मालूम न था कि उसे उसके इस काम का प्रतिफल नोबल पुरस्कार के रूप में मिलेगा। इस साधारण व्यक्ति युनुस को तो उसके राज्य के लोग भी नहीं जानते थे, फिर भला पूरे देश की बात ही क्या? मोहम्मद युनुस ने सारी दुनिया के सामने एक उदाहरण दिया है कि मनुष्य चाहे तो सब कुछ कर सकता है।
व्यक्ति के आत्म विश्वास और दृढ़ निश्चय को इस कहानी के माध्यम से अच्छी तरह समझें- एक व्यक्ति समुद्र किनारे खड़ा लहरों का आना-जाना देख रहा था। लहरों के साथ कितनी ही गोल्डन फिश किनारे आ जाती थीं। उस व्यक्ति को लगा कि यदि ये मछलियाँ जाती हुई लहरों के साथ फिर से पानी में न जा सकीं, तो यही किनारे पर तड़प कर मर जाएँगी। यह विचार आते ही उसने किनारे से गोल्डन मछलियों को इकट्ठा किया और उन्हें समुद्र में गहरे पानी में फेंकना शुरू किया। उस व्यक्ति को एक दूसरा आदमी दूर से देख रहा था। उसे ऐसे व्यवहार से आश्चर्य हुआ। वह मछली पकड़ने वाले आदमी के पास आया और उससे पूछा कि वह ऐसा क्यों कर रहा है? पहला व्यक्ति बोला कि मैं मछलियों को बचा रहा हूँ। आदमी ने दूसरा प्रश् किया- समुद्र का किनारा तो काफी फैला हुआ है। मछलियाँ तो सभी किनारों पर खींचती चली आती होगी, फिर भला तुम कितनी मछलियों को बचा पाओगे? पहला व्यक्ति बोला- मुझे मालूम है कि मैं सभी मछलियों को नहीं बचा पाऊँगा, किंतु क्या इस कारण मैं जिन्हें बचा सकता हूँ, उन्हें भी मरने के लिए छोड़ दूँ? मेरे लिए महत्व का सवाल यह नहीं है कि कितनी मछलियाँ मर जाएगी, मेरे लिए तो महत्व का सवाल यह है कि मैं कितनी मछलियों को बचा पाऊँगा।
मनुष्य के साथ सबसे बड़ी मुश्किल यह है कि वह अपनी क्षमताओं को पहचान नहीं पाता। जो महान हो चुके हैं, वे पहले साधारण मनुष्य ही थे, उनके कार्यों ने उन्हें महान बनाया। जो महान बनते हैं,उनके कार्य कुछ हटकर होते हैं। इसे इस तरह से कहा जा सकता है कि महान लोग कोई अलग कार्य नहीं करते, बल्कि वे हर कार्य को कुछ अलग ढंग से करते हैं। दुनिया वालों का काम है कहना। इसके सिवाय उन्हें कुछ नहीं आता। लाोगें ने तो पुरुषोत्तम राम को नहीं छोड़ा, तो फिर साधारण मनुष्य की क्या बिसात? कई लोग यह कहते पाए जाते हैं कि वह तो सब कुछ अपने भाग्य में लिखवाकर लाया है। पर बात ऐसी नहीं होती, मनुष्य अपना भाग्य स्वयं लिखता है। अच्छे कार्योँ की प्रशंसा करने वाले कम ही होते हैं, पर आलोचना करने वाले उससे कई गुना अधिक होते हैं। अच्छे कार्य करने से पहले ही लोगों की आलोचना शुरू हो जाती है, याद रखो कि पत्थर उसी पेड़ पर मारा जाता है, जिस पर फल लगे होते हैं। कई काम केवल इसलिए शुरू ही नहीं हो पाते, क्योंकि उसके साथ लोगों की आलोचना जुड़ी होती है।पर जो दृढ़ निश्चयी होते हैं, वे लोगों की परवाह नहीं करते, इसलिए अपने काम को अंजाम दे पाते हैं। जब काम सफल हो जाता है, तब यही आलोचना करने वाले सबसे बड़े प्रशंसक बन जाते हैं। यहाँ बात केवल दृढ़ निश्चयी होने की नहीं है, बल्कि अपने ध्येय के प्रति ईमानदार रहकर जो अपना काम करते हैं, वे ही आगे बढ़ पाते हैं।
याद रखो, जिस पेड़ पर लोग पत्थर मारते हैं, वे केवल कुछ फल ही प्राप्त कर पाते हैं, पूरा पेड़ उनका कभी नहीं हो सकता। पर जो दृढ़ निश्चयी औरर् कत्तव्यपरायण होते हैं, वे पूरे पेड़ के हकदार होते हैं, पर यह अधिकार उन्हें तभी मिलेगा, जब वे पेड़ की तरह सोचें। पेड़ कभी भी अपने लिए नहीं सोचता, वह महत्वपूर्ण है, जब तक वह अपने को महत्व देता रहेगा, तब तक वह अपने परिवार, समाज, राज्य, देश और विश्व के लिए महत्वपूर्ण होगा। एक दियासलाई से कई दीप जलाए जा सकते हैं। आप ऐसा ही एक दीप बनें, जिससे अज्ञानता का अंधकार दूर हो, परिश्रम की उजास सामने आए। इस संबंध में कविवर गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर ने कहा है 'जदि तोमार डाक सुने केऊ न आसबे, तो एकला चलो' याने यदि तुम्हारी पुकार सुनकर कोई तुम्हारे पास न आए,तो अकेले ही चलने का संकल्प लो, अकेले ही चलते चलो। सही है भीड़ उन्हीं के पीछे होती है, जिनका सफर अकेले ही शुरू हुआ था।
डॉ. महेश परिमल

1 टिप्पणी:

  1. बहुत प्रभावशाली लेख...काश हम इस बात को समझ कर जीवन में आगे बढ़ते जाएँ.. किसी ने सही कहा....अकेला दिया हूँ इस सदन में, मुझी से प्रकाश होगा(कुछ ऐसा ही याद है)

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