गुरुवार, 11 अक्तूबर 2007

जड़ों से दूर होते हुए....

डॉ. महेश परिमल
अगरेंजी माध्यम से पढ़ने वाली बिटिया अखबार में लिखा हुआ बड़ी मुश्किल से पढ़ पाई 'अब तक छप्पन'. पढ़ लेने से क्या होता है, उसे समझना भी तो पड़ता है, अतएव उसने पूछ ही लिया. पापा ये छप्पन क्या होता है. अब इसे क्या कहा जाए? ये कैसी शिक्षा है, जो बच्चों को उनकी जड़ों से दूर कर रही है. आज इन बच्चों पर ऍंगरेंजी इतनी हावी हो गई है कि ये चाहकर भी अपनी बात अपनी भाषा में नहीं कह पा रहे हैं. बच्चे तो बच्चे आज यह भाषा हम पर ही इतनी हावी हो गई है कि उनहत्तर, उन्यासी, नौआसी का विश्लेषण करने में नानी याद आ जाती है. आज यदि बच्चे से कह दिया जाए कि जाओ झोला ले आओ, तो वे बगलें झाँकने लगता है. उसें पता ही नहीं है कि झोला किसे कहते हैं? वे तो केवल बेग को ही जानता है. इन बातों से लगता है कि कहीं हम अपनी जड़ों से ही तो दूर नहीं हो रहे हैं? शिक्षा केवल ज्ञान ही दे, यह आवश्यक नहीं है. शिक्षा तो मस्तिष्क के सभी तंतुओं की जिज्ञासा को शांत करती है. आज की शिक्षा से जुड़े कई सवाल हैं, जो आज यक्ष प्रश्न की तरह समाज के सामने अनुत्तरित हैं. आज शिक्षा की जड़ें कहाँ हैं इसे शायद हमने जानने का प्रयास नहीं किया. शिक्षा मन, आत्मा और पवित्र करती है. यह शिक्षा तो उन्हें अपनी भाषा अपनी जमीन से ही दूर कर रही है.
बिटिया का पहाड़े याद करना भी मुझे अजीब लगता है. टू वन जा टू, टू टू जा फोर. हम तो आज भी सत्ते अट्ठे छप्पन, सात सत्ते उन्चास याद रखते हैं. यही आज भी हमारी जबान में बस गया है. बच्चों की ऐसी जिज्ञासा को पहले हम इसी तरह हिंदी में करके तुरंत ऍंगरेजी में बताते हैं. दूसरी ओर बिटिया को जब तक उसे एप्पल न दिखाया जाए, तब तक वह नहीं जान पाती है, उसे सेव भी कहते हैं. यही हाल अन्य फलों का है. मुश्किल तब होती है, जब वह सीताफल दिखाते हुए पूछती है, इसे क्या कहते हैं? अब इस भारतीय फल का अगरेंजी नाम कहाँ से ढूँढ़ कर लाएँ? यदि उसे बता भी दिया जाए कि उसे 'कस्टर्ड एप्पल' कहते हैं, तब वह उसे एप्पल का कोई भाई समझकर खा लेती है. गणित में पारंगत बच्चा साढ़े इक्कीस का आधा नहीं कर पाता, इसके लिए उसे केल्कुलेटर या कापी-पेन की आवश्यकता होती है. कभी-कभी वह सामान लेने जाता है, सब्जी वाला बच्चा उसे ठग लेता है. रोंज सुबह दूध लेकर लौटने हुए मुझै एक प्यारा-सा बच्चा अपने पिता के साथ स्कूल बस का इंतजार करता हुआ मिलता है. मैं उसे 'सुप्रभात' कहता हूँ, वह सुप्रभात नहीं बोल पाता. इसके एवज में वह 'गुड मार्निंग' बोलता है. मैंने उसे लाख समझाया कि गुड मार्निंग को ही हिंदी में सुप्रभात कहते हैं. वह मानने को तैयार नहीं होता. कहता है आपके जैसा बोलूँगा तो मैडम मारेंगी. उस मासूम की बात पर ध्यान दिया जाए, तो यही स्पष्ट होता है कि बच्चे चाहकर भी हिंदी के शब्द या वाक्य बोल नहीं पाते.
अब बच्चों के लिए कोई भी मेहमान आंटी या अंकल होता है, कोई मतलब नहीं है उसे चाचा, मामा, फूफी, बुआ, मौसी से, उसके लिए ये दो संबोधन ही पर्याप्त हैं. संबंधों का पूरा संसार इन दो शब्दों तक ही सिमट गया है उनका. गाँव में दादी को गाोबर से घर लीपता देखकर नाक दबाकर भाग खड़ा होता है बच्चा. अब इन्हें क्या कहा जाए?
कितने एकाकी हो गए हैं, हम सब? शायद इसे ही कहते हैं जड़ों से दूर होना. शहरी जिदगी में इतने रच बस गए हैं कि गाँव अब एक सपना बनकर रह गया है. एक सिसकता सपना, जहाँ की माटी की गंध आज हमें रुला रही हैं, पर हमारे बच्चों को सब कुछ शहर में मिलने लगा है. गाँव जाना उनके लिए किसी पिकनिक से कम नहीं है. कुछ समय बाद निश्चित ही हम भूल जाएँगे कि सितौलिया, गुल्ली-डंडा, डंडा-पचरंगा, कंचा, गोबर-डंडा, धूप-छाँव, भौंरा, छुपन-छुपैया, बरसात में जमीन पर कील गाड़ने वाला गड़उला भी कोई खेल हुआ करता था. इन खेलों का प्रतिरूप हमें किसी संग्रहालय में भी नहीं मिलेगा. तब कौन बताएगा इन बच्चों को इन सात्विक खेलों के बारे में? कौन समझाएगा इन्हें गोबर की पवित्रता? कैसे समझेंगे ये सब आज के बच्चे? मात्र सौ तक की गिनती का सवाल नहीं है. सवाल है, जड़ों से दूर होने का. जड़ें तो अपनी जगह कायम हैं, पर जड़ों को सींचने वाले वे हाथ आज कहाँ हैं? बदलते जीवन मूल्यों ने आज हमें कांक्रीट के किस जंगल में खड़ा कर दिया है? आज हम कांक्रीट की कंदराओं के प्राणी बन गए हैं. अब यहाँ ऋषि-मुनि नहीं रहते, अब तो यहाँ संस्कृतिभक्षी प्राणी रहने लगे हैं. गाँव के सारे रिश्ते अब शहर में आकर 'कजिन' में बदलने लगे हैं. हम भी इसी का एक हिस्सा बन गए हैं. हम डरने लगे हैं, कहीं हमने अपने बच्चे को हिंदी की गिनती सिखा दी, तो उसे बताकर वह क्लास में गर्व नहीं बल्कि शर्म महसूस करेगा. यदि इस गिनती को गलती से स्कूल में कहीं किसी ने सुन भी लिया, तो उसे निश्चित ही जुर्माना होगा, अनुशासन तोड़ने के जुर्म में संभवत: उसे कोई और दंड मिले. सहमा हुआ बच्चा चाहकर भी कुछ नही कर पा रहा है. हम उस पर अपेक्षाओं का बोझ थोपते जा रहे हैं. अब बच्चा किससे कहे कि वह भी जमीन पर लोट-लोट कर मचलना चाहता है, दादी के साथ गोबर से ऑंगन लीपना चाहता है, खलिहान में पुआल पर कूदना चाहता है, कच्चे आम खाना चाहता है और नदी में खूब मस्ती करते हुए नहाना चाहता है. वह यह सब चाहे भी तो हम उसे ये सब करने देंगे? बोलो.....
वस्तुत: हमारे भीतर जो सभ्यता पैठ गई है, उसे हम बाहर निकालना नहीं चाहते और एक नई सभ्यता बपने बच्चों पर आरोपित करना चाहते हैं. बच्चों ने संस्कार तो हमसे ही प्राप्त किए हैं और हमने उन पर एक और संस्कार आरोपित कर दिया है. इस स्थिति में वह ऐसा कुछ भी नहीं करना चाहते, जिससे उन्हें मूर्ख साबित किया जाए. किंतु स्कूल में उस पर एक नई सभ्यता का संस्कार आरोपित किया जाता है, जिसे वे सहजता से स्वीकार नहीं कर पाते, यदि कर भी लें तो वह संस्कार केवल स्कूल की चारदीवारी के बाहर आकर समाप्त हो जाते हैं. इस उधेड़बुन और गफलत में वे कहीं के नहीं रह जाते. हम खुद एक संस्कार में बँघकर रह गए, पर उन मासूमों को टुकडों-टुकड़ों में संस्कारों के टुकड़े दे रहे हैं. अब वे उसमें से कितना स्वीकार कर पाते हैं, यह उन पर निर्भर है. बच्चों की इस मानसिकता को किसी ने जानने-समझने की कोशिश कभी किसी ने की है बोलो....?
डा. महेश परिमल

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