सोमवार, 8 अक्तूबर 2007

आज भी प्रासंगिक हैं प्रेमचंद

डॉ. महेश परिमल
आठ अक्टूबर को प्रेमचंद की 71 वीं पुण्यतिथि है, उनके जीवन का सर्वश्रेष्ठ उपन्यास 'गोदान' का प्रसारण दूरदर्शन पर हुआ. यह एक विडम्बना ही है कि जो व्यक्ति कभी फिल्मी दुनिया में अपनी किस्मत आजमाने गया हो और विफल होकर लौट आया हो, उनकी मृत्यु के अड़सठ वर्ष बाद उनके ही लिखे उपन्यास पर धारावाहिक का प्रसारण हुआ. जीवन जो न कराए वह थोड़ा ही है. आज प्रेमचंद हमारे बीच नहीं हैं तो क्या हुआ. अपने तमाम पात्रों के साथ वे पग-पग पर हमारे साथ हैं. गोबर, धनिया, घीसू, सुमन, हमीद इत्यादि ऐसे पात्र हैं, जिनके जीवन में आज आजादी के सत्तावन वर्ष बाद भी कोई खास परिवर्त्तन नहीं आया है. सभी जीने की तरह अपना जीवन केवल घसीट ही रहे हैं. आजादी के बाद गरीब और गरीब हुआ है और अमीर और अमीर. हाँ सरकारी फाइलों में एक आम आदमी की आय पहले से काफी बढ़ गई है. अब तो गरीबी की रेखा भी बन गई है. इस पार के अमीर, उस पार के ंगरीब. पर कौन जानता है कि इन रेखाओं को खींचने वाले कौन हैं, क्योंकि इसके बाद भी कई रेखाएँ ऐसी हैं, जो अपने आप ख्ािंच गई है. जिसे समाज ने तो नहीं खींचा, पर अनजाने में वही रेखा आज ंगरीबों पर हावी हो गई है. यह रेखा है अति गरीब और अति अमीर की. रेखाओं के इस गणित को प्रेमचंद ने बहुत पहले ही देख लिया था. वे भारत के भविष्य को समझ चुके थे.
उनके लेखन के उत्तम वर्ष वहीं हैं, जब गाँधीजी ने दक्षिण अफ्रीका से आकर अपना राजनीति जीवन शुरू किया था. 1936 में प्रेमचंद हमारे बीच नहीं रहे, पर उनकी सोच की प्रासंगिकता में आज भी कमी नहीं आई है. इस बीच साहित्य की धाराएँ भी चल निकली, सभी धाराओं के केंद्र बिंदु में आम आदमी ही रहा, पर प्रेमचंद का आम आदमी सच्चा भारतीय था. उनके गाँव लमही का वह पेड़ आज भी गोदान के पात्रों का मौन साक्षी है. उसी पेड़ ने अपनी छाँव पर प्रेमचंद को उन पात्रों को गढ़ते देखा है. उस पेड़ की एक-एक शाख इस बात की गवाही देती है कि प्रेमचंद के वे सभी पात्र उनके अपने ही थे. वे जैसा जीवन जी रहे थे, वही उनकी कलम से नि:सृत हो रहा था.
प्रेमचंद ने भारतीय समाज को उस वक्त जमीनी हकीकत से परिचित कराया, जब लोग चंद्रकांता और चंद्रकांता संतति की ऐयारी कथाओं की भूल-भुलैया में उलझे हुए थे. उनका लेखन दो विश्वयुध्द और गाँधीजी के स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान हुआ. इसलिए वे इसे अच्छी तरह समझ चुके थे कि भारतीय समाज की जड़ में शोषण है, इससे मुक्त होने में एक नए भारत की खोज करनी होगी. उस नए भारत का संकेत तो प्रेमचंद ने दिया, पर इसकी कल्पना गाँधीजी ने की. उधर सोवियत रुस में मैक्सिम गोर्की भी इसी तरह का लेखन कर रहे थे. उनका सर्वहारा वर्ग और प्रेमचंद के दबे, कुचले ंगरीब वर्ग के चित्रण में काफी समानता है. प्रेमचंद के पात्र अभिजात्य वर्ग के नहीं थे. गोदान के गोबर और धनिया के माध्यम से ही उन्होंने सारे देश के गरीब वर्ग का चित्रण कर दिया. विधवा का पुनर्विवाह की बात भले ही आचार्य चतुरसेन ने अपने उपन्यास 'शुभदा' में कही हो, पर प्रेमचंद के उपन्यास 'सेवासदन' की सुमन भारतीय नारी का वह चित्र प्रस्तुत करती है, जो उस समय वास्तविक थी और आज बदली हुई परिस्थितियों में भी वास्तविक है. वास्तविक इसलिए भी, क्योंकि प्रेमचंद ने अपना दूसरा विवाह एक बाल विधवा से किया था.
प्रेमचंद हाथीदाँत की मीनार पर बैठकर लिखने वाले लेखक नहीं थे, वे वास्तविक धरातल के इंसान थे और उन्होंने वही लिखा, जो देखा और भोगा. उनकी दृष्टि का पैनापन ही है, जो उन्हें दूरद्रष्टा बताती है. उनके पात्रों की स्थिति में आज भी कोई बदलाव नहीं आया है. इससे स्पष्ट है कि वे कितने दूर की सोच लेते थे. उनकी सोच की लहरें उस वक्त भले ही किनारा न पाए, लेकिन आज हालात के थपेड़ों से टकराकर वहीं लहरें उनकी यादों को तांजा कर देती हैं. कहा जाता है कि अतीत की कोख में वर्त्तमान छिपा होता है, प्रेमचंद का अतीत आज हमारा वर्त्तमान है, पर इस वर्त्तमान में आखिर क्या बदलाव आया है, इसे शपथपूर्वक कोई नहीं कह सकता.
चाहे रंगभूमि हो या फिर कर्मभूमि. उनके पात्र सच की भाषा बोलते हैं. कर्मभूमि में चंद्रकांत के मुख से वे अपनी ही बात को कुछ इस तरह रखते हैं- बचपन वह उम्र है, जब इंसान को मोहव्बत की सबसे ज्यादा जरूरत पड़ती है, उस वक्त पौधे को तरी मिल जाए, तो जिंदगी भर के लिए उनकी जड़ें मंजबूत हो जाती हैं. मेरी माँ के देहांत के बाद मेरी रूह को खुराक नहीं मिली, वही भूख मेरी ंजिदगी है. आपको याद है उनकी कृति 'जीवन सागर' जिसमें उन्होंने अपनी ही बात इस तरह से लिखी है- पाँव में जूते न थे, देह पर साबूत कपड़े न थे, महँगाई अलग थी, रुपए में बीस सेर जौ थे, स्कूल से साढ़े तीन बजे छुट्टी मिलती थी, काशी के क्वींस कॉलेज में पढ़ता था, हेडमास्टर ने फीस माफ कर दी थी, इम्तहान सिर पर था और मैं एक लड़के को पढ़ाने बाँस फाटक जाता था. जाड़ों के दिन थे, चार बजे पहुँचता था, पढ़ाकर छह बजे छुट्टी पाता, वहाँ से मेरा घर देहात में आठ किलोमीटर पर था, तेज चलने पर भी आठ बजे से पहले घर न पहुँच पाता. प्रात:काल आठ बजे फिर घर से चलना पड़ता था. कभी वक्त पर स्कूल न पहुँचता. रात को खाना खाकर कुप्पी के सामने पढने बैठता और न जाने कब सो जाता. फिर भी हिम्मत बाँधे रहता.
णवे आगे लिखते हैं ''मैं मंजदूर हूँ, जिस दिन मैं न लिखूँ, उस दिन मुझे रोटी खाने का अधिकार नहीं है....'' ये शद्व उनके होठों के केवल आभूषण ही न थे, बल्कि सच थे. लिखने का जुनून उन पर इस कदर हावी था कि मृत्यु के पूर्व उन्होंने एक और उपन्यास 'मंगलसूत्र' पूरा करना चाहते थे, पर शरीर साथ नहीं दे रहा था, फिर भी चार अध्याय लिख ही लिया. उनकी इन दिनों की स्थिति का वर्णन करते हुए बाबा नागार्जुन लिखते हैं कि खाना हजम नहीें होता था, खून की कै करने लगे थे, पेट में पानी भर गया था. दूध, बार्ली, फलों का रस तक नहीं पचा पाते थे, पर इतने पर भी काम करने की ललक पीछा नहीं छोड़ती थी, लिखने की अभिलाषा शांत नहीं हो पाती थी. देश को अपना जीवन, अनुभव और अपने विचारों की अंतिम बूँद तक दे जाने की इच्छा चैन नहीं लेने देती थी. 8 अक्टूबर 1936, रात का पिछला पहर, प्रेमचंद ने हमेशा के लिए अपनी ऑंखें मूँद ली. अभी साठ के भी नहीं हुए थे, 56 वर्ष की आयु क्या कोई लम्बी आयु थी? मैक्सिम गोर्की और शरतचंद्र का देहावसान भी उसी वर्ष हुआ.
तो देखा आपने प्रेमचंद के प्रेममय जीवन का यथार्थ? जीवन के कठोर धरातल पर उन्होंने अनुभव के मोतियों को सहेजा और जड़ दिए अपनी रचनाओं में. वही मोती आज भी हमारे बीच हैं अपने पात्रों के नामों के साथ. अब तो वे पात्र नहीं रहे, पर हालात आज भी वही हैं. उनकी लेखनी के विरोध में आवाज उठाने वाले शायद यह भूल गए हैं कि उन्होंने जैसा जीवन जिया, ठीक उसे ही अपनी रचनाओं में उकेरा. छद्मवेशी होने का आरोप उन पर कोई नहीं लगा सकता. जैसा कि हम सब आज के लेखकों में देख-पा रहे हैं. इसलिए हमें कलम के उस सिपाही को नमन करना चाहिए, जिनके समाज का सच आज भी हमारे सामने होने के बाद भी हम उसे स्वीकार नहीें कर पा रहे हैं.
डॉ. महेश परिमल

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