शुक्रवार, 14 सितंबर 2007

हम सभी सुन रहे हैं, हिंदी की सिसकियाँ

डॉ. महेश परिमल'
हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा है' आज यह सूत्र वाक्य बेमानी सा लगने लगा है. मन के किसी कोने से अंग्रेजी के प्रति प्रेम भाव जागता है और हिंदी अधिकारी, हिंदी के प्राध्यापक और हिंदी के प्रति सब कुछ न्योछावर करने का संकल्प लेने वाले भी अपने बच्चों को कान्वेंटी शिक्षा ग्रहण करने के लिए भेज देते हैं. इसके पीछे उनकी मूल भावना यही होती है कि बच्चा अंग्रेजी जान लेगा, तो उसका भविष्य भले ही सुखद न हो, पर दु:खद भी न हो. इस भावना के पीछे यही भाव है कि अंग्रेजियत हिंदी पर हावी होती जा रही है. हिंदी के ज्ञानी सच कहें, तो घास ही छिल रहे हैं. अंग्रेजी का थोड़ा सा ज्ञान रखने वाला भी आज अफसर बन बैठा है. हिंदी की दुर्दशा से हर कोई वाकिफ है. साल में एक दिन मिल ही जाता है, चिंता करने के लिए. पर इसके लिए दोषी तो हम स्वयं हैं, क्योंकि अभी तक हिंदी को वह सम्मान ही नहीं दिया, जिसके वह लायक है. हिंदी राजनीति की शिकार हो गई, हिंदी समिति की सिफारिशें सिसक रहीं हैं, आदेशों की धज्जियाँ उड़ाई जा रही है, और हमारे नेताओं और अफसरों को कोई फर्क नहीं पड़ रहा है. नेता तो अब इससे वोट नहीं बटोर सकते. शालाओं में हिंदी बोलने वाले को संजा मिलती है. पाठ्यक्रम में राम, रहीम, सीता की जगह जॉन, रॉबर्ट, मेरी, जूली ने ले ली है. दक्षिण के लोग भले ही हिंदी का विरोध करें, लेकिन वे आज भी हिंदी फिल्में चाव से देखते हैं और उसके गाने गुनगुनाते हैं. हम हिंदी जानने वाले ही हिंदी को निकृष्ट भाषा मानते हैं. इसके प्रति पहले हम समर्पित हों, तभी दूसरों को उपदेश दे सकते हैं.

रोम्यारोलां ने कहीं कहा है कि कोई भी चीज यदि अच्छी-खासी चल रही हो, उसमें थोड़ी-सी राजनीति डाल दो, निश्चय ही उस चीज का बंटाढार हो जाएगा. उनकी यह बात आज शत-प्रतिशत सच साबित हो रही है. हमारे जीवन का आज ऐसा कोई भी अंग नहीं है, जिसमें राजनीति न हो. राजनीति के इस दुराग्रह के शिकार केवल हमारी संसद ही नहीं हो रही है, बल्कि शिक्षा, खेल, धर्म में भी इसका पदार्पण हो गया है और यह उसे घुन की तरह खाए जा रही है.

आज हम यदि हमारी राष्ट्रभाषा हिंदी को लेकर देखें, तो यही लगेगा कि जब से इसमें राजनीति का प्रवेश हुआ है, यह केवल गरीबों की भाषा बनकर रह गई है. जिस तरह आजादी के पूर्व आज एक-दो लाख अंगरेजों ने दो सौ वर्षों तक 34 करोड़ भारतवासियों पर राज किया. आज देश की पूरी आबादी मात्र चार प्रतिशत अंग्रेजी जानने वाले लोग पूरे 96 प्रतिशत हिंदी जानने वालों को चला रहे हैं. क्या, यह अच्छी स्थिति है? आज हिंदी अपने ही घर में अजनबी हो गई है. एक विदेशी भाषा उस पर हावी होती जा रही है और तो और हमारी संसद का सारा कामकाज भी अंग्रेजी में हो रहा है.

आज के हालात को देखते हुए हम सगर्व नहीं कह सकते कि हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा है. इस दिशा में एक हल्की-सी रोशनी दिखाई दी थी 12 मई, 1994 को, जब संघ लोक सेवा आयोग के कार्यालय के बाहर विशाल धरना कार्यक्रम हुआ. यह कार्यक्रम भारतीय भाषाओं की लड़ाई के इतिहास में एक महत्वपूर्ण पड़ाव था. साठ के दशक में हुए 'अंगरेजी हटाओ' आंदोलन के बाद यह सबसे बड़ी गतिविधि थी. साठ के दशक के आंदोलन की मुख्य भूमिका संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी की थी, जबकि इस बार धरने में सभी दलों के लोग शामिल हुए. पूर्व राष्ट्रपति स्व. ज्ञानी जैलसिंह एवं पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रतापसिंह समेत तमाम दलों के नेता धरने में आए और एक स्वर में आयोग की सभी परीक्षाओं में अंग्रेजी की अनिवार्यता समाप्त करने एवं भारतीय भाषाओं को उचित स्थान दिलाने की माँग की. फलस्वरूप संसद के दोनों सदनों में खासा हंगामा हुआ और वहाँ की कार्रवाई भी नहीं चलने दी. इस पर सत्तारूढ़ दल कांग्रेस द्वारा इस मामले पर शीघ्र कार्रवाई का आश्वासन दे कर बला को टाला गया. अंतरराष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं ने भी इस मुद्दे को काफी उछाला. बी.बी.सी., वॉयस ऑफ अमेरिका से विशेष झलकियाँ प्रसारित हुई.

तो यह है भारत देश का दुर्भाग्य, जहाँ हमारे नेताओं को देश की भाषाओं के लिए धरना देना पड़ रहा है. इस घरने के बाद ऐसा लगा, मानों भारतीय भाषाओं के दिन फिर जाएँगे. अंग्रेजी न जानने पर अब इस देश में बेइज्जत नहीं होना पड़ेगा. हिंदी न जानने पर सभ्रांतजन गर्व महसूस नहीं करेंगे. इसके साथ ही भाषा के नाम पर इस देश में जो अराजकता फैली हुई है, वह समाप्त हो जाएगी. यह आशा इसलिए भी बंधी थी कि धरना देने वाले नेताओं ने यह धमकी दी थी कि यदि नियत समय तक हमारी माँगे न मानी गई, तो हम सभी जेल जाने को तैयार हैं. पर ऐसा कुछ नहीं हुआ, संसद का विशेष अधिवेशन समाप्त हो गया, न तो कोई जेल गया, न ही किसी नेता ने अपनी माँगों को दोहराया और न ही किसी ने माँगों को याद दिलाने की कोशिश ही की. अगर यह मामला उसी समय जोर पकड़ लिया होता तो आज स्थिति कुछ और ही होती, पर हमारे नेताओं को श्रेय लूटना था-भाषा के नाम पर, सो उन्होंने लूट लिया. बस, खेल खत्म. समझ में नहीं आता कि जब सत्ता हाथ में आती है, तब ये सब क्यों नहीं सूझता?

आज भारतीय भाषाओं की जो स्थिति है, वह बहुत ही दयनीय है. एक तरफ तो यही नेता जब वोट माँगते हैं, तब अपनी-अपनी क्षेत्रीय भाषाओं में माँगते हैं.दूसरी ओर वोट मिलते ही अंग्रेजी प्रेमी हो जाते हैं. अंग्रेजी के बिना क्या देश नहीं चलेगा? क्या सचमुच हमारा देश आज भाषाई दृष्टि से इतना कमजोर हो गया है कि अंग्रेजी के बिना अब वह एक कदम भी नहीं चल पाएगा. क्या सिर्फ अंग्रेजी भाषा ही इस देश को जोड़ने वाली कड़ी है और कोई भाषा इस देश में है ही नहीं? जिस देश की अपनी कोई भाषा नहीं होती, उसकी आत्मा भी नहीं होती. क्या हम एक प्राणहीन, स्पंदनहीन देश में रह रहे हैं, जहाँ अपने भावों की अभिव्यक्ति के लिए विदेशी भाषा का सहारा लेना पड़े?

अंग्रेजी प्रेमियों की ओर से एक तर्क उछाला जाता है जिसे हिंदी प्रेमी भी स्वीकार करते हैं, वह यह कि यदि अंग्रेजी नहीं जानोगे, तो कम्प्यूटर कैसे चलाओगे? इस तर्क के जवाब में मेरा यही कहना है कि हालैंड, स्वीडन, चीन और रूस में कौन-सी भाषा में कम्प्यूटर चलता है? दरअसल हमारे नेताओं को हिंदी भाषा का यह फार्मूला पुराना लगने लगा है. अब वह समय नहीं रहा, जब हिंदी भाषा के नाम पर वोट बटोर लिए जाते थे. आजकल तो वोट बटोरने के लिए धार्मिक उन्माद, अराजकता, सनसनी पैदा करने वाले बयान, कीचड़ उछालने की प्रवृत्ति और आरोपों की बौछार, जिससे नागरिक उन पर रीझ जाएँ और अपना कीमती वोट उन्हें दे कर खुद को बरबाद कर लें.

इस पूरे मामले पर एक विहंगम दृष्टि डालें तो पता चलेगा कि हिंदी को सर्वव्यापी बनाने की कोशिश आम व्यक्तियों द्वारा की गई. राजनेताओं ने इसका इस्तेमाल केवल वोट की खातिर किया. क्या कभी सोचा है आपने कि भाषा को लेकर धरना कार्यक्रम छह वर्षों तक जारी रहा? जी हाँ, अखिल भारतीय भाषा संरक्षण के लोग छह वर्षों तक संघ लोकसेवा आयोग के कार्यालय के बाहर धरना दिया. इसमें पूर्व राष्ट्रपति स्व. ज्ञानी जैलसिंह दो बार शामिल हुए.

यह सर्वविदित है कि हमारे समाज में अफसरी का क्या महत्व है? सारे कार्यों की धुरी आज अफसर ही बन गए हैं. वे चाहें तो किसी का भी काम करें या न करें. कई मामले तो ऐसे आए हैं कि इन अफसरों ने मंत्रियों तक को चला दिया है. यदि यह कहा जाए कि इस देश को अफसर लोग चला रहे हैं, तो कोई अतिशयोक्ति न होगी. केन्द्रीय सेवा के अधिकारियों के मानों हमेशा पौ-बारह रहते हैं.

हालांकि भारतीय भाषाओं को माध्यम बनाए जाने की वकालत आजादी से पहले भी होती रही है और संविधान सभा के सामने भी यह मामला कई बार आया, पर काँग्रेस के भीतर ही एक वर्ग ऐसा था जो अंग्रेजी प्रेमी था. इन्हें पं. जवाहर लाल नेहरू का आशीर्वाद प्राप्त था. फिर भी लोकसेवा आयोग की परीक्षाओं में व्याप्त अराजकता और अंग्रेजी की दादागिरी को देखते हुए काँग्रेस कार्यसमिति ने 1954 में एक प्रस्ताव पारित किया कि हिंदी के साथ ही क्षेत्रीय भाषाओं को भी आयोग की परीक्षाओं के माध्यम की मान्यता दी जाए. बाद में राजभाषा आयोग और संसदीय राजभाषा समिति ने भी इस सुझाव को मान लिया, लेकिन 1960 में राष्ट्रपति ने विशेष आदेश जारी किए, जिसमें स्पष्ट रूप से उल्लेख किया गया कि केन्द्रीय स्तर पर हिंदी और प्रादेशिक स्तर पर स्थानीय भाषाओं का प्रयोग बढ़ाया जाए. नौकरियों के ढाँचे को विकेंद्रित किया जाए और कर्मचारियों व अधिकारियों को हिंदी का सम्यक ज्ञान आवश्यक कर दिया जाए. भर्ती परीक्षाओं में कुछ समय बाद हिंदी को भी माध्यम बनाया जाए.

इसके बावजूद राजभाषा अधिनियम 1963 में इस मामले में कोई खास प्रावधान नहीं रखा गया. अधिनियम में सरकार ने यह जरूर छूट दे दी कि चाहे तो इस संबंध में कोई फैसला कर सकती है. 1963 के अधिनियम को देखकर दक्षिण के राजनेताओं को जलन होने लगी. फलस्वरूप तमिलनाडु में हिंदी विरोधी दंगे शुरू हो गए. अंतत: 1967 के अधिनियम में यह संशोधन करना पड़ा कि तब तक अंग्रेजी की स्थिति में कोई अंतर नहीं आएगा, जब तक कि राज्यों में विधानसभाएँ स्वेच्छा से यह स्वीकार नहीं कर लेतीं कि वे हिंदी को अपनाने को तैयार हैं, लेकिन भारतीय भाषाओं को माध्यम बनाए जाने को लेकर सरकार पर जोर पड़ता रहा. हिंदी भाषी राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने भी दबाव डाला. फरवरी 1968 में महाराष्ट्र, राजस्थान, मध्यप्रदेश, गुजरात और बिहार के मुख्यमंत्रियों ने हिंदी को स्वीकारने की घोषणा भी की. दिल्ली, उत्तरप्रदेश और बिहार में अंग्रेजी के वर्चस्व के खिलाफ आंदोलन भी हुए. संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी और जनसंघ के सांसदों-विधायकों ने राजभाषा संशोधन अधिनियम 1967 की प्रतियों को जलाया और तब 1968 में यह संकल्प पारित हुआ, जिसका संबंध भारतीय भाषाओं की मौजूदा लड़ाइयों से है.

इस संकल्प से गड़बड़ी शुरू हो गई. इस संकल्प से हिंदी के संवर्धन, विकास और प्रचार-प्रसार के साथ ही साथ आठवीं अनुसूची में शामिल भाषाओं को केंद्रीय सरकार की नौकरियों के लिए ली जाने वाली परीक्षाओं के माध्यम का दर्जा दिया गया और कहा गया कि केंद्र उनके विकास का प्रयास करे, लेकिन यह संकल्प लोकसेवा आयोग ने रद्दी की टोकरी में डाल दिया. इस पर कभी अमल नहीं हुआ. तमाम परीक्षाओं के माध्यम की भाषा अंग्रेजी ही रही. 1967 में ही जब यह संकल्प पारित हो रहा था, तभी संसद ने लोकसेवा आयोग को निर्देश दिया था कि 1968 तक कम से कम एक परीक्षा में यह संकल्प लागू कर दिया जाए, लेकिन आयोग ने यह निर्देश लौटा दिया.

कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि सरकार द्वारा हिंदी के प्रचार-प्रसार एवं विकास के लिए जो भी प्रस्ताव पारित किया गया उसमें दृढ़ता का अभाव था. उच्च पदों पर बैठे अधिकारी भी हिंदी को बढ़ावा देना नहीं चाहते.

आज जंगली घासों की तरह गली-मोहल्लों में ऊग आई न जानें कितनी अंग्रेजी माध्यम की स्कूलें खुल गई हैं, जहाँ बच्चा किसी को प्रणाम या नमस्कार नहीं कर सकता. अब तो उनकी पाठयपुस्तकों से राम, मोहन, सीता के नाम गुम होने लगे हैं. भारतीय संस्कृति पर यह हमला हो रहा है और हम खामोश हैं. हिंदी भाषा आज अपने ही घर में अजनबी हो गई है. उसके अस्तित्व को नकारा नहीं जा रहा है. हिंदी अब केवल हिंदी दिवस पर होने वाले आयोजनों में ही अपने सही रूप में दिखती है. सरकारी संरक्षण के अभाव में वह विकृत हो रही है. जिस दिन सरकार दृढ़ता से यह संकल्प ले लें कि हिंदी ही हमारी राष्ट्रभाषा होगी, तो उसे राष्ट्रभाषा बनने से कोई रोक नहीं सकता, पर जरूरी यही है कि सरकार की नीयत में खोट न हो.

संकल्प

गृह मंत्रालय के दिनांक 18 जनवरी, 1965 का संकल्प एफ 5.8.65 रा.भा.

संख्यांक एफ 5.8.65 रा.भा. संसद के दोनों सदनों में पारित निम्नलिखित सरकारी संकल्प आम जानकारी के लिए प्रकाशित किया जाता है.

और जबकि यह सुनिश्चित करना आवश्यक है कि संघ की लोक सेवाओं के विषय में देश के विभिन्न भागों के लोगों के न्यायोचित दावों और हितों का पूर्ण परित्राण किया जाए. यह सभा संकल्प करती है-

क. कि उन विशेष सेवाओं अथवा पदों को छोड़कर जिनके लिए ऐसी किसी सेवा अथवा पद के र्क?ाव्यों के संतोषजनक निष्पादन हेतु केवल अंग्रेजी अथवा केवल हिंदी अथवा दोनों जैसी कि स्थिति हो, का उच्च स्तर का ज्ञान आवश्यक समझा जाए. संघ सेवाओं अथवा पदों के लिए भर्ती करने हेतु उम्मीदवारों के चयन के समय हिंदी अथवा अंग्रेजी में किसी एक का ज्ञान अनिवार्यत: अपेक्षित होगा और

ख. कि परीक्षाओं की भावी योजना प्रक्रिया संबंधी पहलुओं एवं समय के विषय में संघ लोक सेवा आयोग के विचार जानने के पश्चात अखिल भारतीय एवं उच्चतर केंद्रीय सेवाओं संबंधी परीक्षाओं के लिए संविधान की आठवीं अनुसूचि में सम्मिलित सभी भाषाओं तथा अंग्रेजी को वैकल्पिक माध्यम के रूप में रखने की अनुमति होगी.



संसदीय समिति की सिसकती सिफारिशें

संसदीय राजभाषा समिति का गठन 1976 में किया गया था, ताकि राजभाषा अधिनियम और राजभाषा से संबंधित संवैधानिक एवं कानूनी प्रावधानों का पालन हो सके. राजभाषा के मामले यह सबसे शक्तिशाली समिति है, जो सरकार में राजभाषा के कार्यान्वयन की जाँच पड़ताल करती है. दस साल तक इस समिति ने हवाई यात्राएँ तो बहुत की, पर राष्ट्रपति को कोई रिपोर्ट नहीं दी. 1987 में पहली बार रिपोर्ट दी गई. 1992 तक पाँच खंड राष्ट्रपति को दिए जा चुके हैं.

इस समिति ने अपनी रिपोर्ट में सिफारिश की है कि भर्ती के लिए साक्षात्कार के समय हिंदी का विकल्प दिया जाए. उम्मीदवार को लिखित रूप से यह सूचना देने के लिए कहा जाए कि वह साक्षात्कार में किस भाषा का माध्यम अपनाना चाहता है. उसी भाषा में साक्षात्कार लिया जाए. चयन बोर्ड में भी हिंदी जानने वाले विशेषज्ञ हों.

समिति की कृषि, इंजीनियरिंग तथा आयुर्विज्ञान की भर्ती व प्रवेश परीक्षाओं में हिंदी माध्यम का विकल्प देने का सुझाव दिया गया. समिति की यह भी सिफारिश मान ली गई है कि ऐसी संस्थाओं में जो किसी न किसी रूप में भारत सरकार के नियंत्रणाधीन हैं, प्रवेश परीक्षाओं में तुरंत हिंदी माध्यम का शिक्षा विभाग, भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद् तथा स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय इस विषय में समुचित कार्रवाई सुनिश्चित करें. संसदीय संकल्प के बारे में संसदीय राजभाषा समिति की सिफारिश है कि भर्ती परीक्षाओं में अंग्रेजी के प्रश्न पत्र की अनिवार्यता को तुरंत समाप्त करके यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि 18 जनवरी 1968 के संसद के संकल्प में की गई व्यवस्था को निष्ठापूर्वक अनुपालन किया जाए और उस प्रावधान में अंतर्निहित भावना का पूर्ण आदर किया जाए. समिति की यह सिफारिश मान लिए जाने के बावजूद अंतिम निर्णय रोक लिया गया है कि इस संबंध में संघ लोक सेवा आयोग के विचार अभी नहीं मिले हैं.

इन तमाम सिफारिशों और आदेशों के बावजूद सच आज भी यही है कि न तो साक्षात्कार में हिंदी को विकल्प दिया जा रहा है, न ही प्रश्न पत्र हिंदी में लिखने की छूट है. हाँ, सिविल सेवा जैसी कुछ परीक्षाओं में जरुर कुछ सीमा तक नियमों का पालन हो रहा है. बैंको, सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों और भारत सरकार के छुटपुट पदों के लिए होने वाली भर्तियों में आज भी अंगरेजियत का वर्चस्व है. ऐसा न होता तो अंग्रेजी स्कूलों की माँग इतनी नही बढ़ती.
रचनाकार संपर्क:

- डॉ. महेश परिमल,

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