सोमवार, 24 सितंबर 2007

कहाँ गया इंसानी चेहरे का नूर....

डा. महेश परिमल
हाल ही में कुछ घटनाओं ने चौंका दिया. हमारे देश में स्वतंत्रता सेनानियों की संख्या घटने के बजाए बढ़ने लगी. बापू के अंतिम श?द 'हे राम' नहीं थे. शांति से किस तरह आत्महत्या करें. एनकाउंटर स्पेशलिस्ट दया नायक के घर छापा. मुम्बई की लोकल ट्रेनों में कामसूत्र पर सबक. ये क्या हो रहा है, हमारे आसपास? हम कहाँ जा रहे हैं? क्या हो गया है हमारी नैतिकता को? नारी का सबसे विकृत रूप आज हम टीवी के माध्यम से देख रहे हैं. क्या आज की नारी सचमुच ऐसी ही हैं, जैसा उन्हें दिखाया जा रहा है?
हमें आज भी याद है, जब हम छोटे थे और टॉकीज में कोई फिल्म देखने जाते थे, तो पर्दे पर किसी महान नेता की तस्वीर आते ही हॉल तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठता था. सिनेमा के अंत में राष्ट्रगान अवश्य बजता था और लोग दो मिनट खड़े होने में जरा भी संकोच नहीं करते थे. उन दिनों में एक फिल्म बनी थी- 'विद्या' उस फिल्म में नायक-नायिका जब एक दूसरे से मिलते थे, तो 'नमस्ते' कहने के बजाए 'जयहिंद' कहते थे. देशप्रेम की यह अभिव्यक्ति मन में जोश भर देती थी. आज आजादी के 58 वर्ष बाद अखबार में कांशीराम, मायावती, लालूप्रसाद, राबड़ीदेवी की तस्वीरें देखते हैं, तब एक प्रकार का मन घृणा से भर उठता है. नेहरू, मौलाना आंजाद, सरदार पटेल, डा. राजेन्द्र प्रसाद जैसे महान नेताओं का स्थान आज कुर्सी प्रिय, स?ाा लोलुप और भ्रष्ट लोगों ने ले लिया है. आजादी की आधी सदी की शायद यह सबसे बड़ी उपल?धि है. शाला में पढ़ने जाते थे, तब सुभाषचंद्र बोस, गांधीजी आदि नेताओं के चित्र उत्साह के साथ ?लेक बोर्ड पर बनाते थे या कक्षा की दीवारों पर लगाते थे. आज यदि किसी नेता का चित्र शाला या कॉलेज की दीवारों पर लगाने को कहा जाए, तो वर्तमान के किस नेता की तस्वीर लगाएँगे, यह सवाल कोई विराम नहीं पाता. दुनिया गांधी को पूजती थी और पूजती रहेगी, पर हम केवल बीते हुए कल के साथ इन नेताओं की यादों को लेकर आखिर कब तक अपने आप को धोखा देते रहेंगे?
सुधीजनों को याद होगा कि स्वीडन के प्रधानमंत्री ओलोफ पाल्मे की हत्या उस समय हो गई थी, जब वे रात को सिनेमा देखकर फुटपाथ से चलते हुए अपने घर आ रहे थे. कितनी सादगी के साथ रहते हैं ये विदेशी नेता. क्या किसी भारतीय नेता की कल्पना इस तरह सेकी जा सकती है कि वह एक आम आदमी बनकर सड़कों पर चले? आज तो साधारण सा विधायक भी महँगी कार से नीचे नहीं उतरता. फिर मंत्रियों की बात तो पूछो ही मत. आज के नेताओं को देखकर लगता है कि भारत एक गरीब देश है? आज संसद की कार्रवाई पर एक मिनट मेें लाखों रुपए खर्च होते हैं. देश की जनता का पैसा वहाँ पानी की तरह बह रहा है, पर कोई देखने सुनने वाला नहीं है. आज संसद की गरिमा को ठेस पहुँचाने वाले लोग बड़ी तादाद में हो गए हैं. आज के सांसद महीने में एक लाख रुपए से अधिक वेतन और भ?ाा लेने के बाद भी यह कहते हैं कि हम तो बंधुआ मजदूर जैसे हैं. हमारे वेतन में अभी 400 गुना की बढ़ो?ारी होनी चाहिए. हमारे देश के राज्यपाल, मुख्यमंत्रियों और जाति और धर्म के नाम पर बड़े नेता बनने वाले लोग विशेष विमान में ही उड़ रहे हैं. इसके बाद भी देश की जनता को राष्ट्रभक्ति सिखाने से बाज नहीं आते. बिहार की कानून-व्यवस्था सुधारने के लिए अब तो केंद्र ने भी हाथ खड़े कर दिए हैं. उ?ारप्रदेश की मुख्यमंत्री बनते ही मायावती ने करोड़ों की मिल्कियत खड़ी कर ली. लोग उन्हें गरीबों की नेता कहते हैं. हर नेता पद पर रहते हुए सात पीढ़ियों का इंतजाम कर ही लेता है.
हमारे देश की लोकशाही सबसे अधिक मुलायम और लचीली है. यहाँ गंभीर से गंभीर मामले पर फँसे अपराधी धन की बदौलत आसानी से कानून के चंगुल से छूट जाते हैं. कानून तो हैं, पर वे सभी गरीबों और निराश्रित लोगों के लिए ही होते हैं. एक कर्मचारी को यदि आयकर देने में ंजरा सी देर हो जाती है, तो आयकर विभाग उसे नोटिस भेज देता है. पर ऊँचे लोग आयकर अधिकारियों के घर पर ही बैठकर सौदेबाजी कर लेते हैं, तब उन्हें कुछ नहीं होता. यदि आप अभिनेता, उद्योगपति, डाक्टर, वकील, व्यापारी या किसान हैं, तो आयकर में माफी दी जा सकती है. पर हर महीने 5-7 हजार रुपए कमाने वाले कर्मचारी हैं, तो हर महीने आयकर भरना ही होगा. इसमें यदि थोड़ी सी भी लेतलाली होती है, तो यही विभाग नोटिस देकर पूरी रकम ?याज सहित वसूल कर लेता है. फिल्मी अभिनेताओं पर कितना आयकर बकाया है, इसकी जानकारी सरकार संसद में देकर निश्चिंत हो जाती है. यदि किसी ने धन का बहुत बड़ा घोटाला किया हो, तब भी वह बेखौफ होकर किसी व्यावसायिक संस्था में जाकर अर्थतंत्र पर भाषण कर सकता है. जर्मनी में पिछले दिनों एक नामी टेनिस खिलाड़ी ने कम आयकर का भुगतान किया था, तब उसे उसके पिता समेत जेल की हवा खानी पड़ी थी. लेकिन भारत देश में नियम को तोड़ना, कर चोरी करना बहादुरी मानी जाती है.
आज हर बड़े आदमी का कोई न कोई धार्मिक गुरु है. इस देश के बड़े वैज्ञानिक को भले ही कोई भी न जानता हो, पर ढोंगी साधु बाबाओं की सभा में लाखों लोग उमड़ पड़ते हैं. प्रार?धवाद की एक बड़ी लहर आज हमारे देश में उठ रही है. लोगों ने काम करना छोड़ दिया है. मंत्र-तंत्र, चमत्कार, मनौती, ताबीज, गंडे आदि का बोलबाला है. धार्मिक मठों के पास करोड़ों की संप?ाि इकट्ठी हो गई है. सरकार को विदेशों से कर्ज लेना पड़ रहा है.
आज इस देश में विश्व की सबसे महँगी बिजली, सबसे महँगा पेट्रोल मिल रहा है. बिजली की आपूर्ति जब-तब बंद होते रहती है. ट्रेनों और बसों में बेकाबू भीड़ होने लगी है. रास्ते गदंगी से अटे पड़े हैं, टे्रने नियमित नहीं चल पा रही हैं. शालाओं में प्रवेश नहीं मिल रहा है. देश की आधी आबादी अनपढ़ है, शेष शिक्षित वर्ग इन अनपढ़ों को लूटने में लगा है. थोड़े से निजी स्वार्थ के कारण यदि किसी व्यक्ति या देश का करोड़ों का नुकसान हो रहा है, तो चलेगा, पर स्वयं की जेब भरनी चाहिए. आजादी के बाद देश की हालत केवल फाइलों में ही अच्छी हुई है. पर आज आम आदमी की हालत में कोई खास बदलाव नहीं आया है. उसके चेहरे का तेज कहीं खो गया है. वह पहले भी गरीब था, आज भी गरीब है. युवा आज दिग्भ्रमित हैं और वृध्द बीते जमाने को याद कर केवल ऑंसू बहा रहे हैं. ये ही बुंजर्ग साँस भरकर हमसे ही पूछते हैं कि क्या इन्हीं दिनों के लिए आजादी मिली थी? एक छोटे से देश के कुल बजट जितनी रकम हमारे देश के नेता अकेले ही हजम कर लेते हैं. फिर भी उन्हें कुछ नहीं होता. आजादी के तुरंत बाद स्थिति यह थी कि भ्रष्टाचारियों को लोग घृणा की दृष्टि से देखते थे, भ्रष्टाचार का खुलासा होने के बाद भ्रष्टाचारी को शर्म महसूस होती थी, लेकिन आज खुलेआम सांसद रिश्वत ले रहे हैं, पुलिस खुलेआम नजराना वसूल करती है, किसी को किसी का भय नहीं है. सरकार लाचार है और न्यायतंत्र कछुआ चाल से चल रहा है. हजारों लोगों की मौत का कारण बनने वाला खुलेआम घूम रहा है. खैरनार जैसे अधिकारी को अपनी नौकरी खोनी पड़ती है. ऐसे में कैसे चल पाएगा हमारा देश?
सवाल यह उठता है कि क्या हमारी चमड़ी इतनी मोटी हो गई है कि अब हमें कोई फर्क नहीं पड़ता? मानव का लगातार पतन हो रहा है. नैतिकता का नामो-निशान नहीं है. फैशन के नाम पर शरीर की नुमाइश हो रही है. बच्चों का बचपन ही बिकने लगा है. युवा तो आज चेटिंग रुम में भ्रमित हो रहे हैं. युवतियों की बात ही न पूछो, वे तो सरपट भागे जा रही हैं. उन्हें पता ही नहीं है कि वे क्या करने जा रही हैं. अब संतानों की फरमाइश इतनी अधिक हो गई है कि उसके लिए पालकों को अतिरिक्त आय का साधन ढँढ़ना पड़ रहा है. यह साधन भले ही न्यायसंगत न हो, पर इसे कोई टोकने वाला नहीं है. बरबाद होती इस पीढ़ी को सही दिशा देने वाला भी कोई नहीं है. आखिर कहाँ आ गए हैं हम सब?
डा. महेश परिमल

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