शनिवार, 15 सितंबर 2007

खिलखिलाती प्रकृति का अट्टहास

डॉ महेश परिमल
फल-कल करती नदियॉ झर-झर बहते झरने सनन्-सनन् सन् करती हवाएॅ और लहर लहर लहराती सागर की लहरें ऐसे में भला किसका मन मयूर न होगा? बादलों के पंख दिल पर ऊग आएॅगे और उड़ते-उड़ते ये जा पहॅुचेगा प्रकृति की गोद में, जहॉ हरीतिमा की चादर ओढ़े, इंद्रधनुषी आभा को अपने सिर का ताज बनाए इस सृष्टि ने श्रृंगार किया है। कितनी अद्भुत कल्पना! कितनी सुखद और मन को आल्हादित करने वाली कल्पना!एक सुरभित और सुंदरतम कल्पना! क्या ऐसा होता है? हॉ ऐसा ही होता है! नहीं, नहीं यू कहें कि ऐसा ही होता था।सावन के आते ही रिमझिम फुहारों की मस्ती में, भीगी माटी के सौंधोपन में, कोयल की कुहू-कुहू में और अमराई में झूलते आम के कच्चे झुमकों में ये कल्पना साकार हो उठती थी।चारों ओर सावन की बौछारों के साथ जवानी झूमउठती थी, बुढ़ापा गा उठता था और बचपन कागज की कश्ती के साथ तैर जाता था।वर्षा की बूंदों के बीच अधारों पर मुस्कान खिल जाती थी।ऑखों में चमक और चेहरे पर दमक छा जाती थी। तब हॉ, तभी मन का मयूर नृत्य करता था और एक कल्पना साकार हो उठती थी।इस तरह हर कोई वर्षा का स्वागत करने को आतुर रहता था। आज स्व रामनारायण उपाध्याय जी बरबस याद आते हैं, उन्हाेंने कहा है सितारों की कील की चुभन से जब आसमान का दिल भर आता है,तो उसे वर्षा कहते हैं। किसान की जर्जर ऑखे टकटकी लगाए आसमान की ओर देखती रहती है। जैसे ही बादलों का शोर सुनाई देता है, उसके बूढ़े शरीर में जोश भर जाता है, कमजोर ऑखों में चमक आ जाती है। शरीर से भले ही तैयार न हो पर मन से पूरे जोश के साथ वह वर्षा के स्वागत के लिए तैयार हो जाता है। फिर वह अपने हल, बैल को लेकर निकल जाता है अंधोरे में ही, धारती की छाती से लहलहाती फसल लेने का संकल्प लेकर। पहले जब सावन आता था, तो प्रकृति खिलखिलाती थी। उसकी गोद में कई सुखद कल्पनाएॅ जन्म लेती थी, किंतु आज हालात ये हैं कि जब सावन आता है, तो उसका रूप इतना भयानक होता है कि यूॅ लगता है मानों प्रकृति खिलखिलाने के बजाए अट्टहास कर रही हो।अब तो सावन हमें डराने लगा है, न जाने कब किस हालत में वह हमारे घर आ जाए और हम सब बाहर निकल जाएॅ? अब तो सावन ही नहीं, बल्कि आषाढ़ भी अपने को कमतर नहीं मानता। सावन तो बाद में, पर आषाढ़ तो पहले ही अपनी रंगत दिखाने लगा है। आज सावन के आते ही मन एक अनजाने भय के साथ सिहर उठता है। प्रतीक्षा की घड़ी में भी मन के किसी कोने में सावन के न आने की भी आशा रहती है।पिछले कई बरस से सावन जब भी आया है हमारे ऑगन में, तब से वह ऑगन भी अधामरा हो गया है।आखिर ऐसा क्यों करने लगा है सावन हम सबसे।हमने ऐसा क्या किया है कि वह हमें डराने लगा है।
हम तो ठहरे ग्रामीण, हमें तो वह सदैव भला ही लगता रहा है, हमने कभी उसे दुतकारा नहीं, उसकी अगवानी में हमने सदैव ही अपनी सूखी ऑखें बिछाई हैं।उसकी पूजा करने में कभी कोई कसर बाकी नहीं रखी।उसे तो
दुतकारा है शहरियों ने, जहॉ कांक्रीट का जंगल है।उनके दिल भी कांक्रीट की तरह हो गए हैं।वहीं तो होती है,उससे छेड़खानी।कहते है पानी अपना रास्ता खुद बनाता है, पर पानी के बनाए हुए रास्ते को ही जब डामर की
सड़क में तब्दील कर दिया जाए, तो भला किसे अच्छा लगेगा।पानी के रास्ते में मानव आ रहा है।क्या पानी उसे छोड़ेगा? आज धरती की छाती में हजारों छेद हो गए हैं।रोज ही नए-नए छेद हो रहे हैं। धरती से पानी दूर और दूर होता जा रहा है।धारती सूखने लगी है। प्रकृति रुठने लगी है।बहुत ही गहरा नाता है इन दोनों में। दोनों ने ही
मानव जाति के साथ दोस्ती निभाई है। मानव ने ही अपने स्वार्थ के लिए ससे छेड़छाड़ शुरू कर दी है।इसमें शहरी मानव ने ही कई खतरनाक कदम उठाए हैं।पानी रोकने के तमाम पुराने रास्तों को छोड़कर लगातार नए रास्ते बनाए जा रहे हैं। उसके स्वभाव को ही बदलने की साजिश चल रही है।भला पानी अपना स्वभाव बदल सकता है? पानी में तो वह ताकत है कि वह लोगों के चेहरे का पानी ही उतार दे।वह चाहे तो लोगों को
पानी-पानी कर दे।पर वह ऐसा करना नहीं चाहता। पर प्रकृति भला कहॉ मानने वाली। उसका स्वभाव पानी जैसा नहीं है, वह तो वहीं करेगी, जो उसे करना है। अब तक उसने मानव जाति का खूब साथ दिया, पर जब
यही मानव जाति उसके साथ अनाचार करने लगी, तब उसने भी अपना द्र रूप दिखाना शुरू कर दिया।पहले वह मचलती थी,अब बिफरने लगी। उसका बिफरना हमें डराने लगा है।अब वह हर मौसम में अपना रंग दिखाने लगी है।उसके लिए अब नतो सावन की फुहारों का कोई अर्थ है और न ही बासंती बयार का।अब उसके लिए हर मौसम अपनी मनमानी का मौसम है। गर्मी में खूबतपाने वाली प्रकृति बारिश में कई जिंदगियों को डूबो देती है। किटकिटाती ठंड में आखिरी सफर तय करवाती प्रकृति उफ नती हवाओं के साथ कई जिंदगियों को मौत के आगोश में ले जाती है। यही है प्रकृति का नया रूप।वह जानती है कि उसके इस रूप को हम सहन नहीं कर पा रहे हैं, फिर भी इसी रूप में सामने आना उसकी विवशता है और यह हमारी ही देन है। आज राम नारायण उपाध्याय जी बरबस याद आते हैं, उन्हाने कहा है सितारों की कील की चुभन से जब आसमान का दिल भर आता है, तो उसे वर्षा कहते हैं। आज प्रकृति की छाती पर इतनी अधिक इंसानी कीलें चुभा दी गई हैं कि वह आर्तनाद करने लगी है।उसका यही आर्तनाद हमारे सामने विभिन्न रूपों में सामने आने लगा है। इसके पहले कि यह आर्तनाद अपना रौद्र रूप दिखाए, हमें सचेत हो जाना चाहिए। नहीं तो हो सकता है हमारी करतूतों की सजा हमारी पीढ़ी को भोगनी पडे।

डॉ महेश परिमल

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