सोमवार, 10 सितंबर 2007

कहीं सूख न जाए संवेदनाओं की नदी...

डा. महेश परिमल
एक खबर, केलिफोर्निया की एक महिला अपनी कार होने के बावजूद एक महीने तक बस से कार्यालय गईं. वजह जानना चाहेंगे आप? क्योंकि उसकी कार के पहिए के पास चिड़िया ने अपना घोसला बनाया है. अब जब तक चिड़िया के बच्चे जन्म नहीं लेते, तब तक वह महिला इसी तरह अपने कार्यालय जाएगी. अब वह महिला पक्षीविदों के पास जाकर यह जानने की कोशिश कर रही है कि चिड़िया कब तक अपने बच्चों को जन्म दे देगी? पक्षीविद् उस महिला की जिज्ञासा जानकर हतप्रभ रह गए, क्योंकि अब तक उनके पास जो भी आया, वह यही पूछता कि चिड़िया के घोसले को किस तरह से हटाया जाए.
हम भारतीयों के लिए यह एक सामान्य घटना हो सकती है. शायद इसलिए कि हम यह जानना ही नहीं चाहते हैं कि चिड़िया के घोसले बनाने का मतलब क्या है. क्योंकि हमने ही एक नहीं, कई बार चिड़िया द्वारा लाए गए तिनके-तिनके को बाहर फेंका है. बिना यह जाने कि उनके इस तिनके के पीछे क्या मंशा है? परिंदे अपना घरौंदा तैयार करते हैं, उसके पीछे उनकी यही मंशा होती है कि अपने घरौंदे में अपने परिवार का लालन-पालन हो. उस घरौंदे में जब बच्चे बड़े हो जाते हैं, तब वह अपना घरौंदा छोड़कर कहीं और चले जाते हैं. लेकिन इंसान इतना स्वार्थी हो गया है कि ऐसा केवल अपने लिए ही सोचता है. मान लो वह इंसान किराए के मकान में रह रहा हो, वहाँ यदि चिड़िया अपना घोसला बनाती है, तब वह किराएदार उस घोसले को बनने के पहले ही उजाड़ देता है. ऐसा वह बार-बार करता है. वह नहीं समझना चाहता, तिनके-तिनके बटोरने के पीछे उस उद्देश्य को. उसे तो फेंकना ही जानता है. यह तो हुई, उस किराएदार की बात. उसका कहना है कि तिनके बटोरने में कहीं चिड़िया हमारे पंखे में उलझ गई, तो वह घायल हो जाएगी. इसीलिए हम उस बसने देना ही नहीं चाहते. ताकि वह कहीं और जाकर अपना घोसला बनाए. बड़ी अच्छी सोच है. चिड़िया ने उस इंसान के किराए के घर पर अपना घरौंदा बनाने का सपना देखा. यह उसका सपना था. पर उस सपने को किराएदार ने पलने के पहले ही उजाड़ दिया. अब यदि ईश्वर कभी उस इंसान के बारे में कुछ सोचता है कि आखिर यह कब तक किराए के मकान में रहेगा, इसका भी अपना घर होना चाहिए. ईश्वर की उस सोच को उस इंसान की करतूत पनपने ही नहीं देगी. क्योंकि इसी इंसान ने जब एक चिड़िया का घरौंदा बनने से पहले ही उजाड़ दिया, तो अब इसका घरौंदा बनाने की हालात क्यों तैयार किए जाएँ?
बात बिलकुल सही है, जब हम किसी का भला नहीं सोच सकते, तो हमारा भला कौन सोचेगा? जब हम किसी का घरौंदा बनाने में सहायक नहीं हो सकते, तो फिर हमारा घरौंदा बनाने में कौन सहायक होगा? छोटी सी तिनके-तिनके जितनी सोच, लेकिन इसमें भी है, दृढ ऌच्छाशक्ति. वह चिड़िया तो अपना घोसला कहीं भी बना ही लेगी. पर क्या आप में इतनी भी इंसानियत नहीं है कि किसी का घरौंदा बनने में सहायक बनें? अनजाने में हम कहाँ-कहाँ, किसको, किस तरह से सहायक बनते हैं, यह हमें ही नहीं मालूम. दफ्तर में यदि एक फाइल अटका दी जाती है या फिर कथित रूप से गुम हो जाती है, तब उससे जुड़े कई काम अटक जाते हैं. संभव है उस फाइल में किसी की पेंशन के बारे में जानकारी हो, किसी बच्चे को मिलने वाली छात्रवृत्ति की जानकारी हो, या हो सकता है कि सरकार की किसी महत्वपूर्ण योजना के बारे में ही तमाम जानकारियाँ हों. अब आप ही सोचें कि एक बुजुर्ग कर्मचारी को यदि समय पर पेंशन न मिले, तो उसके परिवार पर क्या गुजरती है? एक छात्र को समय पर छात्रवृत्ति न मिले, तो उसका मेधावी जीवन तो खत्म ही समझो. जिस योजना को बरसात के पहले लागू हो जाना था, वह फाइल गुम हो जाने के कारण कई महीनों तक कथित रूप से विचाराधीन ही पड़ी रही.
किसी काम में सहायक होना बड़ी बात है, पर अनजाने में सहायक होना उससे भी बड़ी बात है. ऐसा तब होता है जब हम अपने ही प्रति ईमानदार रहें. जो अपने ही प्रति ईमानदार नहीं रह सकता, वह किसी के प्रति ईमानदार नहीं रह सकता. अपने प्रति ईमानदार होने का सबसे बड़ा सुबूत यही है कि अपने काम में ईमानदारी बरती जाए. शुरुआत खुद से ही करनी होगी.
दूसरों के प्रति ईमानदारी का भाव रखा जाए, तो ईमानदारी का सिलसिला शुरू हो सकता है. पहली ही नजर में हम यदि किसी को बेईमान मान लें, तो हो गई काम की अच्छी शुरुआत. दूसरों के प्रति संवेदना का भाव रखा जाए, तो निश्चित ही वह भी हमारे प्रति अपना सख्त रवैया भी नरम कर सकता है. यदि सड़क पर कुचले हुआ कुत्ता हमारा ध्यान आकृष्ट नहीं कर सकता, तब तो आगे किसी परिचित का शव भी हमें आंदोलित नहीं कर पाएगा, क्योंकि हमने ही अपनी संवेदनाओं की शिराओं को बंद कर सकता है. फिर उसमें अच्छी भावनाओं का लहू कैसे बहेगा? बात फिर वहीं आकर अटक जाती है कि अगर चिड़िया आपके घर पर अपना घरौंदा बनाना चाहती है, तो आपको क्या चिंता है, बनाने दो उसे अपना घरौंदा! आपको थोड़ी सी परेशानी ही तो होगी, पर इस परेशानी से कोई अपने लिए सर छिपाने की जगह बना लेता है, तो किसी का कुछ नहीं जाता, बल्कि उससे जुड़ती है हमारी संवेदनाएँ..
डा. महेश परिमल

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